Monday 7 April 2014

और तुम कहते ही रहे ; कि वख्त नहीं (poem)




और तुमने यूँ  कह दिया ; कि वक्त नहीं 
जब से मिले  हम सुनाते ही रहे अफसाना


वख्त फिसलता रहा ; हम पिघलते रहे
और तुम  कहते ही रहे; कि वक्त नहीं 


तुम मशगूल जश्न मानते   रहे गैरों में 
 सिमटते  रहे  हम  अपनी  कोशिशों में 


फिर  एक  और  कोशिश  सुनाने की
आज  भी  कहते रहे ; कि वख्त नहीं 


सालों बाद भी तुम बदले न कोशिशे 
और फिर वो ही कहा कि ; वख्त नहीं  


फिर कहा गया वो मेरे लिए कोई गैर नहीं 
फिर  सुना  मैंने कि तुम आज भी मेरे नहीं 

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