Wednesday 16 September 2015

देख तमाशा मिट्टी में मिल माटी का

माटी दे चाक पे मिट्टी ढोका बनाये  
खुद से ही खुद को  रौंदे, गढ़े  पकाये 
खुद से खुद को सुन्दर सुयोग्य बना  
माटी करे कौड़ी का व्यापार माटी से  

मिट्टी माटी में अद्भुत गहरा नाता
मिट्टी से जन्म ले उसमे मिल जाये  
मिट्टी ही दुलारे, मिट्टी ही सहलाये 
बहते घाव पे बन मरहम वो लगजाये 

माटी के प्रभु जी पे. छप्पर बने 'शान'  
संस्कार संस्कृति की माटी;देती ज्ञान
गजब है लीला , है गजब इसके काम 
खुद माया गृह गढ़े करे गजब उत्पात  

इकरोज बांध कमर पक्की मिटटी को 
वो कच्ची मिटटी गहरे जल उत्तर गई
धीरे धीरे यूँ विघ्न व्याधि पार हो गए 
देख तमाशा मिट्टी में मिल माटी का  

क्या है मेरी भाषा

मौन जन्मना मौन खिलना
रंग स्नानित सुगन्ध भरपूर 
मौन ही मुरझा गिर जाना
नहीं समझ पाये अभी तक
मेरी भाषा तुम सुनते क्या ?

मूक समझते हम सबको
भाषा का अस्तित्व ही क्या
सांस्कृतिक सामाजिक जो
जितने ज्ञानी उतने अज्ञानी
अ-अभिव्यक्त अव्यक्त है

मूक की भाषा परम सहज
उड़ता पक्षी ये बहता पानी
उन्नत श्रेष्ठ खड़ा फलधारी
गिरती पत्ती उड़ती तितली
हवा को बहते देखा क्या ?

देखो कृति नर्तन ओ गायन
करो संवाद कभी तो मुझसे
बैठो पल को मेरे संग कभी
भूल जाओगे संज्ञान तुम्हारा
कभी मौन वक्ता बने क्या ?

A One Breath life


.
Let's again to live as one
.
On tiny one & one breath 
.
One breath enough to-joy
.
One breath enough to-love
.
One breath exhale to-dirt
.
One breath inhale a smell
.
One breath for one song
.
One breath Cosmic dance
.
And One for drink rainbow
.
Experience doesn't repeat
.
Turn on nectar & lose grip
.
Let's again to live in small

फकीरा


न कोई जंगल न कोई शहर ,
न अजनबी मंजिलों के सुराग
न कदमो के ही मिले निशाँ
न भीड़ बेशुमार
न हीअकेला है मौजी 
कौन सी मिट्टी
कैसा उड़ता तिनका

न ही आरजू
न हसरत का जमावड़ा !
अन्जान अश्क जो बहे
हवा के दुलार से सूख चले
कौन भटकता है !
कितना ! कब !
किसके लिए !

बेबाक है ये बेख़ौफ़ है ,
बांधना किनारो को जरा
सजग सतर्क मजबूती से वर्ना
मजबूत सी लगती चट्टानों को तोड
रेत् बना पल में साथ बहा ले जाएगी

सोचने वाली बात ये की
कवि की कविता खुद में बे_बांध नदी है ..

(this is the reply  to Gulzar Sahab on his one  poetry -
चार तिनके उठा के जंगल से
एक बाली अनाज की लेकर
और चंद कतरे से बासी अश्क़ों के 
चंद फाके बुझे हुए लब पे 
मुट्ठी भर अपने कब्र की मिट्टी

मुट्ठी भर आरज़ुओं का गारा
और एक तामीर की लिए हसरत
तेरा खानाबदोश बेचारा
शहर में दर-ब-दर भटकता है

तेरा कन्धा मिले तो सिर टेंकुं ..!
~ गुलज़ार
boundary_less emotional flow is not good for self than how it become good for all , control ! than with out excessive emotional flow how poetry of poet become popular , point to think ! )


A  thought  become  the small  story  which is  flows  in mind  sharing  here :-

फ़क़ीर आगे आगे चला जा रहा था , गढो से और कीचड़ से भरी वो कच्ची सड़क धूल से भरी , आव देखा न ताव चुल्लू में धुल भरी और बिना पीछे देखे फेंक दी , उसके पीछे चलने वाले कुछ जिज्ञासा से भरे थे कुछ मजाक उड़ा रहे थे गिनती के कुछ लोग थे जिनकी आँखे नम थी ,शायद गाँव छोड़ के जा रहा था , फकीरों का क्या ठिकाना ! उसके धूल फेंकने पर उन्ही में से कुछ ने घबरा कर अपनी आँखे बंद करली , कुछ ने चाल धीमी कर ली की चलो थोड़ी धुल कम पड़ेगी , कुछ ने चादर से खुद को ढक लिया , गिने चुने थे जो उस धूल में से मूल्यवान झोले में डाल रहे थे . और फ़क़ीर सबसे बेखबर आगे ही आगे बढ़ता जा रहा था ( मोल भी आवश्यकता से निश्चित होता है अब सब बेमोल हो गया ) धुल पीछे को फेंकते जा रहा था , सभी बुद्धिमान थे , अपने अपने स्तर पे , बुद्धिमानी से वांछित चयन कर रहे थे। सभी संतुष्ट थे। फ़क़ीर भी।
Lata

साक्षित्व


.
साक्षित्व भाव-तरंग कुशल-योद्धा सी
सागर में उतरी नाव के पतवार जैसी
जिसके सहारे लहरों के ऊपर तैरते 
जीवात्मा बनता जाता मत्सिका जैसी
.
अनंत विस्तृत नभ इसका अपना नहीं
धरती गगन सौर मंडल है समाये इसमें
जिसका कण कण स्वयं नृत्य संलग्न हो
पिंड ब्रह्मांड हुए इसके गान में संभागी
.
साक्षित्वदृष्टि संकुचन विहीन होते होते
विस्तृत व्योम पार सहज उठती जाती
स्वीकृत चक्र,विज्ञत अदृश्य पथ गमन
स्व / समूह को क्यूँ छोड़े/ पकडे साक्षी
.
इसकी भाषा जो दोहराये वो मदांधित
संग चले प्रेम से , भव-सागर पार होये
सूक्ष्म से विस्तृत जुड़े पलपल कर्म सुई
दो चाक बने जीवन, ग्रहपथ घेरा घडी

सच्चा सा फरेब

पाक साफ़ दिखते जो छलावे भरे
हाथ दुआ वास्ते उठते ही क्यूँ है
इस में भी सच्चा सा फरेब दीखता है
कोई कब किसी की सोचता है 
खुद की सोच ले जो इक बार
बस वो नेक ही खुदा के करीब होता है
किस दुआ में असर है के नहीं
भीड़ भी तमाशे का समां हो गयी
इंसानी दुआ में मिलावटी असर होता है

फर्क

संकल्प में शक्ति दोनों में है
शक्ति का आह्वान दोनों में है
मौलिक फर्क नहीं पौरुष में
जीवन मरण चक्र दोनों में है
दोनों ही बौद्धिक श्रेष्ठ योद्धा
दोनों कर्तव्यपरायण नारायण
फिर फर्क क्या है आखिरकार
बिन्दु संवेदना मर्म पे रुक गया
संवेदना के मध्य भाग पे दोनों
खड़े स्वेक्छिक दृढ़ता के साथ
वो चला संवेदनहीनता के साथ
ये संवेदनशीलता का प्रेमी हुआ
उसकी सोच में संसार-कुल था
इसकी सोच में नन्हा बिंदु मात्र
वो शक्ति गरिमा प्रदर्शन में था
ये शक्ति गरिमा संयोजन में था
बस इतना ही शुरू का फर्क था
परिणामन्त क्या से क्या हो गया

तथास्तु



उसके  मुल्क का दस्तूर भी निराला है
सहज सरल प्रेमबद्ध , प्राण से भरपूर 


समझ के भी समझ कुछ आता नहीं है
कौड़ी का देन , तो कौड़ी का ठहरा लेन 


व्यापार व्यापारी का , खिलाडी का खेल
तथास्तु कहे प्रियतम चिरस्मित  साथ


खेलना है ! खेलो , कर्म चक्की है , दौड़ो
थक गए ! जितना लम्बा चाहो , सो लो 


जितने स्वप्न देखना चाहो; देख लो प्रिय
जागे,निश्चित मुझे ही पाओगे " तथास्तु ! "