Thursday 7 January 2016

संकेत-तार

यानि   के  ; ये  तार  
वो  तार  नहीं   
यहाँ  संकेत  मिलता है  
प्रमाण  नहीं  
हर  स्तर  पे  सिर्फ  संकेत 
अंतर्जगत से लेकर बाह्य जगत तक  
जान  सको  तो  जान  लो 
इनको  प्रमाण  मान  सको  तो  मान  लो  
पर  सुन  के  /पढ़  के  नहीं  
सागर मध्य उतर के " हो-के " जल से 
पहचान  बना  सको  तो  
पहचान  बना  लो  
प्रमाण  के  रेत- कण  मुठी  में  ही  
बंद  रह  जायेंगे  
धीरे  से  वहां  से  भी  फिसल  जायेंगे 
हवा को मुठी में कैसे बाँध पाओगे 
झनझनाते  वीणा  के  तार  के  कम्पन   
ब्रह्मलीन  हो  जायेगे  
तरंग बन के नयी शक्ल धर आएंगे  
जान की पहचान  करोड़ों  में  भी 
जान  बन  समक्ष उस योग्य  की  
योग्यता  उभर  कर जब आएगी 
लाख परतों के पीछे भी  बैठा  वो  
फिर  खिलाडी  चुप  नहीं  पायेगा  
अजब  प्रेम  पहेली  है  
जो  हर  मोड़  पे  मुँह घूँघट में ढांप  
सम्मोहनयुक्त आमंत्रण  देती 
निरंतर ...खड़ी  है , और 
पलक झपकते ही  
रूप ... रंग .... गंध  
स्पर्श ... अहसास  
मायावी  सब  बदल  लेती  है  
संकेत ही संकेत में  कहे - .
" समझो  न  नैनो  की  भाषा "
कह  के  चल पड़ती धुंध की ओर 
सहूलियत वास्ते संपर्क-सूत्र  
भी देती पीछे छोड़, "चले आओ" कहे 
वो  है  " जल  से  जल  का "
सत्तर प्रतिशत उपस्थिति का अर्थ है 
ये प्रतिशत व्याप्त रूप बदलती 
तरल भी गरल ठोस वाष्प होती 
जलधार के बनते स्पष्ट जलतार 
अर्थ है ! अर्थ है !  अर्थ है ! जोड़ है !
ये जलतार उस जलतरंग से जुड़ बहे 
इस जोड़ को कहने में जानने में  -
विज्ञानं ओ अध्यात्म ही समर्थ है 
जल ही समां जाये ऊर्जा बन जल में 
यूँ ऊर्जा बहे ऊर्जा को  , है निश्चित
अथाह जलनिधि के अन्तस्तम में गहरे उतर
नैनो से  तनिक  तुम भी " दो बूँद " गिराओ  



{  दो शब्द :- पानी और विद्युत  आह  !  और क्या ! सब कुछ तो है , पानी से भीगा विद्युत तार सबको पता है , कितना खतरनाक हो जाता है ,विद्युत का प्रवाह कितना शीघ्र और ताकतवर होता है ,  और जब आपका अपना शरीर भी भीगा हो तो  खतरा ही खतरा , खतरा जितना बड़ा संतुलन कहता है प्रसाद उतना ही बड़ा। आँखों से टपकते जल से बड़ा संपर्क और क्या होगा ! इस अद्भुत अनोखे संपर्क सूत्र  के बारे में कभी सोचा  ! नहीं ! तो अब सोचिये !  जानते तो आप है की  मन से ही राह निकलती है  , और भाव ही साधन है , है न ! ये जल ही सूचना है  केंद्र को कि  " कोई मन भीग रहा है " , और अपने इसी यंत्र -तंत्र से वो सबके दिल का हाल जान लेता है , आपको तो पता ही है  , ये जल ७० %  दिमाग में भी है , और इसी वो वजह है की  जल तत्व  के स्मरण  शक्ति  से  बचना संभव नहीं  , इसी संपर्क सूत्र  के द्वारा वो साथ ही है  हमारे। विज्ञान अगर तत्व से अलग वो दृष्टि पा ले तो  सहज दर्शन संभव है , क्यूंकि वो  बस एक सूत ही पीछे है अध्यात्म से  वो भी अपनी तात्विक बुद्धि और उपलब्धि के कारन ! कुछ समझे !  " तो तुम भी जरा अपना मन  मन  भिगाओ  , अथाह जलनिधि में अपने नैनो से  दो बूँद गिराओ ! " }




योगी और "मैं"

 ( वार्ता - यात्रा - दर्शन ) 
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मंदिर आँगन में हवन की अग्नि सुलगाई
उसने कहा उस छोर को देखो तो लपट जहाँ लीन होती है

मैंने संकल्प - जल हाथ में जो लिया
उसने कहा सही यहीं इस बूँद में बस थोड़ा और गहरे तैरो

मैंने मंत्रोचार संग हवा में हाथ लहराया
उसने कहा रुको वो देखो, वो दो उँगलियों के बीच बैठा है 

मैंने चार को बांध एक ऊँगली उठाई
उसने कहा देखो अभी-अभी वो ऊँगली कोर पे जा बैठा है

आह्वाहन कर उतरे सागर गहराईयों में
उसने कहा वो देखो, वो रहा वह, वहां जरा और नीचे चलो

साथ ले उसे कैलाश की चोटी पे जा पहुंचा
शुद्धश्वांस ले कहा आ पहुँचे हो ! दो सूत चढ़ाई और करो ! "

संग में सात आसमानो के पार  हम पहुंचे
सातवें आसमां पे खड़े हो बोला "बस थोड़ा और ऊपर चलो ! "

शाश्वत गवाह



सोचती हूँ ! तुम न होते तो 
भाव को जमीं कहाँ मिलती 
रंग कैसे कहते रंगत अपनी 
इंध्रधनुष मौन ही खो जाता 
फिर क्या होता पुष्प सौंदर्य
फिर आस्था के प्रश्न गिरते 
और प्रयास भी बेअसर होता 
ये लहरें संवाद विहीन होतीं 
ये हवाएँ तुमको कैसे सुनती
पक्षी जीवन गीत गाते उड़ते 
क्यूँ मनमंदिर में लौ जलती
उसी आस्था  स्पर्श  से हो के   
वजूद स्वर्ण बना गर तुम्हरा 
पारस आस्थाभाव भी हमारा 
तुम ही नहीं , ये जिसे छूता है 
अस्तित्व उसका कांतिस्वर्ण 
पुंज पल क्षण प्रदीप्य होता है 
सोचती हूँ ! तुम न होते तो !! सोचती हूँ ! तुम न होते तो
(  दो शब्द  :- ये  आस्था ....... ये  विश्वास .....संसार  में  इस  से  मूल्यवान  कुछ  नहीं  और  ये जिस  पर  भी  ठहर  जाता है  वो  ही  मूल्यवान  हो  जाता  है , है  न ! संसार  की  जादुई  पारसमणि  ; इसीलिए  ज्ञानी  कहते है भावना में भगवान है और भक्ति  का भवन तो भावना पे  ही खड़ा  है  तो भाव में  भक्ति में  प्रेम में  भगवान का वास होना  ही है । और  जादू देखिये  ; ये की परतों से बने संसार की जिस भी पर्त को ये पारस जिस भी भाव  को स्पर्श  करता  है , वो उसी रूप में अति मूल्यवान पवित्र कान्तियुक्त सुवर्ण  हो जाता है। आह !! अहोभाव !!! आस्था कभी दोषयुक्त नहीं हो सकती। अपने किसी भी तल पे ये मैली नहीं ।  )