Sunday 30 November 2014

एकात्म - मिलन - कसौटी



लौकिक भाषा की  सीमाओं- 
नीचे पलती  है सांसारिकता  
शब्द खंगालते है  भावों  को  
ग्रंथपन्नो में ढलती बोलियाँ !

संज्ञा  की  अपनी  मजबूरी है 

फिर  सर्वनाम  तो  जुड़ेंगे ही 
गुण   गिने  जब  भी जायेंगे
तो   अवगुण  भी  उभरेंगे ही !

चाहें यदि परम से सर्वसरल
सर्वसुलभ रूप में आ सामने 
स्व-निजरूप तुम  हो जाओ  
संज्ञाविहीन,सर्वनामविहीन !


वो सरलता, वो ही  सुलभता 

ग्राह्यता, पात्रता भी  चाहिए 
एकात्म  मिलन  की कसौटी 
तादात्म्यता परिपूर्ण चाहिए !

Relation - the beautiful adjustment





Some times on place sit to meditate

my love-lamp perambulate on walks


Some times  my  body  excurse out

inside  love-lamp  sits on meditation


In love, v can't live without a second

both beloved moves according wish




Om

Saturday 29 November 2014

Walks !



I feels always happy 

during pleasure walks .. 

to complete the round

it may squire or may circular

repetition according to inner strength !!



Foresighted health in-

morning-evening walks

i can stop also, to absorbs

beauty , fragrance and touch 

freedom also find during miraculous walks !!


O' my wonderful walks 

freedom to maintain speed 

freedom to forward and backward

Gosh ! same on past present and future 

amazing flavor of meditation,amazing Time-Walk !!

राजा हूँ अपने राज्य का

This place where you are right now, God circled on a map for you -Hafiz 


ग़ाफ़िल भुला हुआ 
भटका  हुआ  राही 
तुम  कहाँ मिले ये 
याद तो  नहीं मुझे 
पहुंचादिया किसने  
मेरी  ऊँगली  थाम 
खड़ा ऐसी जगह पे 
आसमान ओ जमीं 
साँझबेला हुई सुर्ख
दोनों जहाँ  गुलाबी 
हस्थि अश्व  युक्त 

सु - सज्जित द्वार 

स्वागत  दीप  जले 
गाती   वंदन  गान
स्वागत  का   गाते 
लाल   कालीन   पे 
चलते , दोनों  छोर 
से  होती पुष्प वर्षा 
हम  राजा  वहां  के 
ऐसा सभी कह  रहे 
हम अचरज से भरे 

ओह कहाँ आये हम 

खुद से लगे बुबुड़ाने 
सुखद  सशंकित से 
भाव संयुक्त रास्ता 
लम्बा ...मीलों चले 
वे  कैसी सिसकियाँ 
द्वार  से  ठीक पूर्व 
पीछे  पड़ी थी , मुड़े 
पाया  सैकड़ों  शक्ले
चलते बादलों सी वे 
फैलेहाथ नीरबहाती 
ऐसा शोर सुना नहीं 


एक प्रश्न सहज उठा 

वे   समस्त  अभ्यास 
किया था  वर्षो  जिसे 
योग  साधना   कहते 
जिस मैंल को छुड़ाया
जतन से, सप्रयास हो 
चादर धरी तहा सफ़ेद 
छली थे  प्रयास धुआं  
सब  माया  दृशय  थे 
कोहरे तले धूल गुबार 

न कर्म न धर्म प्रपंच 

कुछ था ही नहीं वहां 
बस  समय  की नदी 
बहती फिसलती गई  
और हम अब  समय
से बाहर खड़े, मुड़ के 
देख रहे उस नदी को 
जहाँ से आवाजें उठ 
मन  भेदना  चाहती
अरे ! मायावी  माया  


फिर दोबारा शंकित 

आगे को देखा,पाया 
ओह! यहाँ  भी  हम 
मध्य  में  ही खड़े थे 
आगे स्वागत  गान  
कलशकलेवर युक्त 
दुंदुभी  साज , मधुर 
गीतस्वरलहर,पुष्प -
वर्षा,सुगंधछिड़काव 
भिन्न सुखपरिभाषा 
न  दुःख नुक्ताचीनी 
ठीकपीछे पलटदेखा 
वे  चिड़ों  का बेवजह 
झगडे  चोंच चुभोना  
पल में थे घायलपड़े 
रक्त-रंजीत धरा  पे 
संगीत वे सब गारहे 
भूले  समक्ष वहां का 
कर्कशराग विषपान 

खड़ा  इस  मध्य  में 
घना   गहरा  कोहरा 
दूजी  तरफ   प्रकाश 
धुंधलका  स्पष्ट  हो 
प्रखर प्रकाश  समक्ष 
श्वेतशब्दातीतधवल 
रौशनीस्नानसंयुक्त 
सुखद  आनंद  परम 

Friday 28 November 2014

वो मजा शोर-शराबे में कहाँ जो तारों की खामोश टिमटिमाहट में है

द्भुत  है संसार , अद्भुत है  सौंदर्य , और उपहार जो आभास का है  अप्रतिम है , बारम्बार  आभार है , धन्यवाद  है  उस परम  को  , जो समस्त  जीवन में मिला है      काली रात के खामोश से  दूर बाहर दूर दिखते  तारों की टिमटिमाहट  देख के  प्रेम पूर्ण भाव जगा है , जो आप सभी मित्रों से  और जो भी इसको पढ़ रहे है  या आगे भी पढ़ेंगे ; सभी से बाँटना  चाहती हूँ , ये जो तारों का जाल आप देख रहे है , इनके ऊपर शक्ल भी  लाईनो  से जुडी  दिख रही है ये खोज  अति पुरातन काल में उन  ऋषिजन की विद्वता के संकेत है  जो ब्रह्माण्ड में ऐसी लाईने  उन तारों से आपसी उनके संपर्क संपर्क को तो दिखती ही है , उनसे हमारे संपर्क और सम्बन्ध को भी दर्शाती है , आखिर चुंबकीय सम्बन्ध तो है हमारा और उनका - 




अब वो मजा शोर-शराबे में कहाँ 

जो तारों की खामोश टिमटिमाहट में है


झील का सौंदर्य अपलक निहारने में है 

मजा बंद आँखों से मीता गुनगुनानने में है


हवा के झोको से चहकते फूलों में है 

मजा सिंधुतट को बेवहज चूमती लहरों में है


घाटी की गहराईयों के खिंचाव में है 

मंथर चलते मेघ को निर्मेष हो निहारने में है


वो मजा बेसाख्ता बोलने में कहाँ 

जो मजा खुदको बेसाख्ता मौन खंगालने में है



मेरे आत्मप्रिय ने इस के उत्तर में दो लाईने लिखी है जो इसी कविता से सम्बंधित है , बहुत सुन्दर है, प्रस्तुत है - 
 Kaushal Rakesh बादशाहों की ख्वाब्गाहों में कहाँ....वो मज़ा जो घास पर सोने में है.... वो मज़ा कहाँ मुतमईन हंसी में ... जो मज़ा एक दुसरे को देख कर रोने में है...  

बरम्बार शुक्रिया !  धन्यवाद ! सप्रेम  पुनः  आभार , एक ऐसी ही मौन रात्रि में  अवसर है  तारों से बातें करने का , अपने ही है  या हम उन जैसे है  एक ही बात है एक ही सिक्के के दो रूप ,  दोनों ही प्रतीक्षा में की वार्ता शुरू हो।  

प्रणाम !

The One

ॐ 

The One is only Truth

The One is only Exist


The One is Only Silent

The One is Only Loud


The One is Only Above all 

The One is Only Situated in One Center 



Thy Magnet Connected with All


Everyone Only have Connecting Device


And connection-ability Device to Device



The One is Only Everywhere


The One is Only Timeless



The One is Only Thoughtless


The One is Only Formless



The One is Only Innocent


The One is Only Quality-less



The One is Only Detached Trgunatmk


Those are Understand thy verdict ;



They also transcend with same qualities


With entire Oneness no duality form Heart


They also become thou with Unique Oneness



Wednesday 26 November 2014

रूहानी अक्स





खामोश  कैनवास पे चलते ऊँगली में फंसे ब्रश
पाक सफ़ेद चादर पे रंग मेल से उभरी आकृति 

सफेद कपड़े  पर रंग खुद ब खुद उभर आते है 
रंग भरे ब्रश ऊँगली के जादू से जब फिसलते है 

ख्याल  कैसे रंगो में सिमट आकृति में ढलता है 
चित्र-कला सैकड़ो रंग लिए तस्वीर बन जाती है 

तो उस चित्रकार  का  मासूम सा दिल बोला पड़ा 
बंदगी दिल मे रूहानियत अक्स हो उभरआती है 


for non hindi readers , below   translation in English :-



Brush Moving on Silent  canvas trapped between fingers
on pure white sheet with combination of shades appears shapes

On a white sheet colors appears in shape by itself  
take Bath in colors brush slips upon through magic of fingers

Imagination  how become take shape embrace in colors 
with the help of  thousands of colors a paint-art makes portrait

than that painter's Innocent heart  sudden  spokes
if prayers in heart, soulfulness take shape and pulvinated. 


कविता श्रद्धा पूर्वक सादर  समर्पित Artist Khusro Subzwari को।
_()_ 

संवेदनशीलता अखंड


एक एक बोलता शब्द
अपनी ही परिभाषा है
भाषा के प्रकट सौंदर्य
शब्द से अभिव्यक्ति

अभिव्यंजना शाब्दिक 
उनमे  बंद स्वतंत्रतायें 
शब्द शिकंजे  में  कैद 
हठी  निजी   धारणाएं 

जिनमे कैद होते जीव
खामोश  जीवन्तताएं 
दृढ मन बुद्धि के रंग
छींटे पड़ते सुलगे मन

श्रद्धये  यात्री  प्रत्येक
यात्राओं की है निजता
मान्यताएं  अलग  हो
भरे धारणा रंग अलग

धारणाओं की तरलता
व्यवहार की  सरलता
सम्मानित- जीवंतता
धारणमुक्त फले फूले

संवेदनशीलता अखंड
विसर्जित हो वंचनाये
अनुभव आध्यात्मिक
निरंतर   हो   प्रवाहित 

Tuesday 25 November 2014

मति गति अपनी मुक्ति शक्ति अपनी हो भक्ति



अथक सवालों पीछे छिपी जिज्ञासा अंतहीन क्यूँ  है 

इधर उधर भटकते  बनती दिखती क्यूँ राह तुम्हारी 

सामने कल्पनाओ का विशाल  समंदर लहराता  है 
.
.

बस एक छलांग! अनजान में जहाँ उत्तर स्वतः तैरें

देखते है छलांग लगा के! नहीं  तेरे  कौन सा डूबेंगे 

घूम टहल के वापिस आ अपने घर को चले जायेंगे 
.
.

तैर गए तो , सवाल बन जायेंगे खुद ब खुद जवाब 

उलझन दूर ,कश्मकश मिटेगी, सुंदर होगा प्रकाश 

झूठे मायावी सहारे कब तक कितनी दूर देंगे साथ  
.
.

इक दिन तो बैसाखी छोड़ , अकेले  ही होगा बढ़ना 

तो क्यूँ ना खड़े हो अपने कदमो पे ! जीवन अपना

मति गति अपनी  मुक्ति शक्ति अपनी हो भक्ति

Sunday 23 November 2014

साधो ये मुर्दों का गाँव

साधो ! ये मुर्दों का गाँव (संतकबीर) 


ऐसा सुरूर प्रिय की मधुशाला में कहाँ 

मदिरा पीते यहाँ, माया पिलाती हाला 


बेसुध हुए मदहोश,नशा उतरता नहीं

सोये से उन्मत्त कहते वे,'हम जागे है'


कहते है वो हम नहीं नशे में तुम हो

सुजान नित्यधर्माचरण करते तो है


परिवार चलाते जीविका संघर्ष करते

हम तो देखो जगे ही है, कर्म करते है


आँखे बंद किये जो बैठे कहे हम सोये 

बोलो हमें न हमारे गुरु को,सच्चे हम


कैसे बताये मत्स्य,सब बदल जायेगा

दिखता बदलता कुछ काम न आएगा





Om Pranam

Friday 21 November 2014

रे, स्वप्न दृष्टा !




श्चर्य  न  करो , स्वप्नदृष्टा ! अपने ही
निंद्रा में रोज दिखते सांकेतिक स्वप्न पे   ,
ईश्वर तत्व स्वयं  में  संकेत  है  
तो समक्ष बैठा अथवा 
फ्रेम में जड़ा कभी  न जन्मा न कभी मारा 
सदगुरु  भी संकेत  है   ,
गुरु  के  लिखे कहे शब्द  
ग्रन्थ भी  संकेत  ,
सिर्फ ऊपर को उठी हुई ऊँगली ही नहीं
उसका रोम रोम संकेत,
अंदर  बाहर  करती   श्वास- श्वास  संकेत  है  ..

भोजन  ग्रहण करती जिव्हा 

पचय को सरल करते रसायन 
उन सहज तरल पदार्थ उत्पत्ति
भोजन का स्वतः नालियों के
अंदर जा घुलमिल जाना 
जहाँ  ऊर्जा स्वयं
रूप पुनः परिवर्तित करती है
रक्त बन प्रवाहित ऊर्जा प्राण 
आवश्यक को ग्रहण कर अन्य को
विसर्जित करती 
क्या आप स्वयं कुछ करते है !
पुनः शोधन कीजिये ,
सिवाय गुत्थी  और पेचीदगी 
परोसने के सिवा
आप और भी कुछ करते है ?

जहाँ भी  बुद्धि रुपी नाक घुसाई

परेशानिया , उलझन ,जटिलता
शब्दों से सहज सामना हुआ 
ठहरो , विचारो !!
इन समस्त सही और 
सुचारू प्रणाली के अंतर्गत भी 
छिपे स्वयं परम के दिव्य संकेत ही है
स्वास्थ्य से  लेकर  अस्वास्थ्य
प्रसन्नता और विषाद 
उन्नत चोटी से गहरे समंदर तक 
ये हरी भरी  फैली प्रकर्ति ,
फल रंगबिरंगे खुशबूदार फूल
भोजन और  भजन के  संकेत
हिलते डुलते या के  स्थिर 
चल और अचल  जीव जगत
लगती खुली अधखुली 
सोयी किन्तु जागी 
स्वप्निल  आँखों से 
( लौकिक दृष्टि )
आपको  संकेत ही मिलेंगे

रे, स्वप्न दृष्टा , 

जिसे आप भाषा कहते है 
देसी या हो विदेशी !
आंतरिक तरंगों की अभिव्यक्ति
 के प्रयास करते ,
आपके लिए आपके ही , 
संकेत ही है
जो भी भाव से जागा, 
प्रेम, श्रद्धा, भक्ति या करुणा
भाव भी मात्र संकेत  ही  है  ,
कृपया इन्हे अपनी 
खूंटियां  न समझे 
वैसे खुंटिया भी तो  
स्वयं में संकेत है
यदि उचित समय न चेते 
तो परायी खूंटियों पे टंगे टंगे  ही  
मृत्यु रूप सांकेतिक द्वार में 
यूँ ही प्रवेश कर जायेंगे

इतना तो करिये ,
 कम से कम
इस स्विप्निल जागृत जीवन में ,
अपनी  खुंटिया  खुद  बनायें- .
इन्ही  शब्द  संकेतो  को ! 
हापुरुष  व्यास  ,
तुलसी  कबीर  , मीरा   बुद्ध  ,
सभी तो संकेतों का ही  उपयोग  करते  रहे
आजीवन संकेत  ही  देते  रहे
एक बार स्व दिव्य दृष्टि से देखें  पुनः
सुने  पुनः , पुनः  छू के देखो उन  शास्त्रो को  ,
वहां  स्याही नहीं  इस बार संकेत ही मिलेंगे
स्वयं  कृष्ण  राम  जैसे  महापुरुष  
संकेत  कर  कहते  रहे
उनके जीवन चरित कथा  स्वयं में संकेत  है ,
राधा  , रुक्मणी  भूरि बायीं  ,
प्रेम ,  कर्त्तव्य  और मौन से प्रेरणा रूप
अपने  अपने  तरीके  से  संकेत  देती  रही  .
आप है की खूंटियां ही बढ़ाते रहे
देखिये ! ज़रा एक बार मुड़ के ,
अपने ही ठीक पीछे  !
कुछ सीख  सीखने के लिए
वे सिद्ध वृक्ष और  मंदिर या
मजार  के वातायन  को
जिनपे निरंतर परिवर्तशील 
लौकिक  मनौती  के नाम पे
आस्था रुपी कपड़ों की चिन्दियाँ 
बाँध के आप आते रहे
पंडित , पीर ,मौलवी को 
दान आप चढ़ाते रहे
वे चिन्दियाँ  आज भी 
पेड़ों और खिड़कियों को छिपाती 
हवा में उड़ रही है
छोटी छोटी बजती  घंटियां  
अनवरत आपसे  कुछ कह रहीं है
किन्तु किसी का कहा हुआ -
आपको सुनाई कहाँ देता है ?
वो ही आप सुनते है और उतना ही 
जो जितना सुनना चाहते है

क्या मनोवैज्ञानिक कीमिया आपको मालूम है
दिमाग  की शातिर चालो से वाकिफ है क्या ?
वो वही दिखाता है सुनाता है  प्रेरित करता है
जो आपके मन को अच्छा लगता है !
और आपको लगता है की
आप अपने लिए अच्छा ही अच्छा  जुटाते  है
प्रयास करते है , कर्म करते है ,
सुविधाएँ एकत्रित करते जीवन जीते है
फैशन करते  रेस्ट्रारेन्ट में जाते
शराब कवाब , प्रपंच में उलझे
मदहोश है मदमस्त है आप ,
दिव्य छलिया जीवनसुरा से
वस्तुतः सब मस्तिष्क की चाल  है
छलिए का छल है , मन का भ्रम है
संताप भी छली रूप में सामने 
आ के बंसी बजाते है 
आपको उतना ही दुखी कर पाते है 
जितना आपको सुहाता है ! 

अजब उल्टा खेल है , लीला है !

जाने ! जरा ठीक से, 
क्यूंकि ठीक पीपल के वृक्ष पे 
चिन्दियाँ घंटियां बाँधने के बाद
सिद्धिपीठ पे  अपनी ही भीड़ से 
भीड़ को कुचलते 
जीवन के लिए भागते , 
जीवन को रौंदते  
बेपरवाह मानव समूह 
को देख कर भी 
शोर करता वो परम-मौन 
अनवरत मानवीय मूर्खता से क्षुब्ध
परम के  दिव्य संकेत भी उस पल 
कुछ क्षण को मानो मौन स्तब्ध हो गये  
प्रकर्ति  कितनी बार गहरे सन्नाटे में डूबी
जब जब  भोली मदहोश आस्था के पीछे छुपा 
कोई तथाकथित बाबा  जेल की सलाखों के पीछे गया
अनवरत प्रयासरत प्राकृतिक संकेत भी स्तब्ध रह गए

रे, स्वप्न दृष्टा ! क्या अब भी
आप  नींद में  नींद से  जागे ?
परम अनवरत संकेत दे रहा है
प्रकृति सम्पूर्ण रूप से सहयोग कर रही
सीधा संपर्क पहले से ही जुड़ा हुआ
आप कितने भाग्यशाली  है
मानवरूप में जन्मित जीवरूप
परमात्मा के समस्त उपहारों से संयुक्त
प्रेम और दुलार नित आपकी सुलभ
अरे तनिक रुकिए , विश्राम दीजिये
थोड़ा ध्यान तो दीजिये " स्वयं " पे

स्वयं अर्थात स्व + यम , अपना ही काल है स्वयं
संयोग  अर्थात अचानक घटना का घट जाना नहीं
सं + योग  स्वयं से किया गया योग
तत्जनित उत्पन्न परिस्थति ही संयोग
आपका ही कर्म  फल प्रताप संयोग है
कहाँ और क्यों भटक रहे है आप ?
माया ही माया  का समंदर विशाल
मछली जैसे क्यूँ तड़पते आप है ?

सात द्वार का पद्मव्यूह


महाभारतीय  शातिर  मस्तिष्क  
आज भी  अभिमन्यु ( ह्रदय ) अज्ञानी 
अँधेरे में भटकते  तीर चलाये जाते है 
चक्रभेदन-कला  अर्जुन  नहीं सीखा सका 
आज भी कृष्ण गीता मौन  दोहराये जाते  है 
आज भी  मानवता के वे सात शत्रु
समस्त लौकिक ज्ञान पराक्रम योग कला निपुण 
दिव्य सहज-सहत्रधार के मध्य में 
अभेद खड़े कुटिलता से मुस्कराते नजर आते है 



मस्तिष्क समस्याऐँ दे रहा
मस्तिष्क ही उसे सुलझाने
का असफल प्रयास कर रहा
देखो ! मस्तिष्क का मजा !

आज भी अभिमन्यु है
आधे ज्ञान से  उत्साहित
सीमित शस्त्रों से युक्त
चल पड़े  चक्र भेदन को !
कमस्कम इतना सोचो
चक्रव्यूह  बना कैसे ?
सात द्वार  कहाँ ?
प्रवेश तो पा लोगे
किन्तु निकासी  कहाँ ?
वे सातो वीर शत्रु
आज भी मध्य में ही है !

पद्मव्यूह रचना समझ
हर चक्र का मर्म जान
इड़ा पिंगला संग सुषमन
साथ तुम्हारे रक्षा को
सात घेरो के चक्रव्यूह में
मूलचक्र भेदन भी बाकी है !

समस्या का स्रोत  कहाँ
सर्प कहाँ फुंफकार रहा
विष बीज कहाँ  पे गिरा ,
जो आज वृक्ष बन फला
इस करुक्षेत्र की धरती पे
उद्गम बीज स्थल कहाँ है !

अंध भटकन के साथ
विजय न हासिल होगी
एक एक चक्र को भेदना
वीर विजयी हो निकलना
द्वापर में काल ले गया
अब तो तनिक करो विचार
इसबार भी क्या दोहराओगे
आधा ज्ञान ले युद्धस्थल में
फिर  यूँ  ही उतर जाओगे ...!

आप कुछ बोलते भी है ?



परममौन संग मिलजुल रहती  
दुविधा मर्म की सहेली है 

शास्त्र जनित विषय सांकेतिक 
पूजनमननचिंतनमौन है 

आत्मापरमात्मासौरियग्रहउपग्रह  
गूढ़गंभीरखिलखिलाते है   

संकेतो से ओतप्रोत दुनिया ये 
संकेत वृक्ष ही फलते  है ,

भीड़  में रहते संग  शोर मचाते 
चिड़ी- झुण्ड सब लगते है 

अभी भी लगता है क्या आपको 
आप कुछ बोलते भी है ?

Thursday 20 November 2014

माया की माया


माया  माया को छूती
माया माया को  रोती

माया माया को धोती
माया माया की  चेरी

माया  माया की रानी
माया  ही माया सखी

माया नगरी की माया
माया माँ पितृ  भगनी

माया बसी दौ नैनाँ में
माया श्रवण ओ स्पर्श

माया  जिह्वा ओ देह
माया  सुमति  दुर्मति

बाह्यपरिधि पे डोलती 
लाखअभेद्यप्रयासरत 

नृत्य मनोहारी करती 
रॉवणसम चेष्टायुक्त  

किन्तु  इस बार सीता
लक्ष्मणरेख न लाँघेगी 

तोड़ न सकेगी केंद्रघेरा
आत्मदीप बारा अभंग   

भजमनसीतारामराधेश्याम

प्रथम  प्रहर खिलौने खेलते बीता 

दूजा आडंबर औ रिवाजों ने छीना

तीजा देख भीरु मन थरथर काँपा 


चौथा आता  देख  हुआ शरणागत 


दया  दीनांनाथ ! करे, न थके मन 

जीरा सा  आया ऊँट पहाड़ के नीचे


हे चिंताहरी ! चतुर्नाथ का सु_भाव- 


समर्पण स्वीकारो, सबल है भक्ति

किन्तु जीवनमोह, इक्छा है बाकी


साँझबेला सूर्यउन्मुख अस्तचल को 


अँधेराछाया;मूरख डर से जीते कैसे!

ज्ञानदीप सं सः+योगी करे संकीर्तन


ससमूहभक्तो को गीतपाठ सिखाया 


राधेश्याम जयहनुमान गोविन्दंभज

रामराम सीताराम भोलेशंकर भजलें


भक्तमंडली संगने चमत्कार दिखाया

ईश्वर बाँधत्व से  लौ  थमी थरथराती 

संकल्प कर त्रिशंकुगुरु आश्रम बनाया