Monday 7 April 2014

पतझर ( कविता )


वख्त ने झझकोरा 
एक बार फिर 
उम्र के पेड़ से 
झरते स्वेक्छा से 
लगे पीले पत्ते 
लम्हों से बिखरे 
जमीं पर फैले 
पीले सूखे पत्ते 
कुछ झर गए 
कुछ रह गए 
या सूख चली 
लक्कड़ काया से 
वासनाओं की
टूटती गिरती 
झरती पीली 
पत्तियां !
एक एक करके 
उड़ती बहती 
बयार के साथ 
झर गयी या 
उम्र आयी 
छोड़ दिया 
दरख़्त को 
            आहिस्ता से ...........



ॐ प्रणाम

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