Monday, 7 April 2014

एक नदी का धोखा (कविता )

दो किनारो से बंधी , बहती , 

इठलाती , बलखाती दौड़ती 

अपनी ही सीमाओं में बंधी 

सीमारहित होने को तड़पती।।
















एक रोज... अभिमान कर बैठी 

आस्मां को दिल में उतरता देख 

ये सोचकर हैरान हो गयी कि ; 

वो उतर रहा है ... मेरी रूह में 

अब मैं और वो ...एक हो गये 

या के मैं ही आसमान हो गयी।।



















थोड़ी देर में .. चाँद उतर आया 

सूरज छुप गया आस्मां सीने में 

तब भी बेखबर को पता न चला 


सोचा ; उसका का ही "वजूद" है 

आज पूरा उतर आया है मुझमे।। 
















अब मुझमे उसमे भेद क्या !

ये सोच इतरा गयी अभिमानिनी 

द्वैत से अद्वैत का मिलन हुआ 

जन्म लेना .. उसका सफल हुआ ।।


















एक अक्स दिखने मात्र से ही ;

नदी असमान तो नहीं बन जाती !

एक बूँद में भी वो दीखता वैसा ही है 

जैसा एक कुएं में जैसा एक पोखर में 

एक घड़े में भी तो और समंदर में भी।।

















असमान है बेखबर नदी के अभिमान से 

अब कोई कैसे समझाए गति का रहस्य ?

ये तो स्वभाव है सदा से .. दिन रात का 

दिन में .. सूरज ... रात में .. चंदा तारे 

निकलेंगे ... छुपेंगे... सदा का सिलसिला ।।



















विस्तृत ... असीमित ... विशाल 

अनंत आकाश , आकाश ही रहेगा

उसका ..उसकी रूह में ... उतरना

तो महज़ सामायिक .. आभासी था ।।


















नदी .. सदैव .. नदी .. ही रहेगी 

अपनी ही ... दोनों ... सीमाओं

निरंतर .... अनवरत ... चक्र -

बंधन में बंधी ... दौड़ती रहेगी ,

खामोश सतत समंदर की ओर।।




ॐ प्रणाम

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