जीवनजल रंगहीन गंध हीन ,
निर्मल कोमल बहता जाता
कभी इस गली कभी उस डगर
कभी इस नदी कभी उस तड़ाग
कभी उन उंचाईयों से गिरता हुआ
कभी इन गहराईयों में सिमटता हुआ
कभी दग्ध धरा को शीतल करता
अभी तन धोता अब मन को धोता
बंजर को हरियाला जीवन देता
बढ़ता चलता .... बढ़ता चलता
रंग गिरे इसमें तो पटल पे उभरे
भंग गिरे घट में तो तन मन डोले
संग गिरे पिया के तो बांसुरी बाजे
निर्बान्ध मंलग बने जो बांधना चाहूँ
बंध जाये , स्वेक्छा से , समर्पण से
न चाहे तो कैसे बाँध पाऊँ ! सखी री
न तेरे बस में ...वो .. न मेरे बस में
मंदिर में बन संग कृत्य पूजा का
सागर में करता नृत्य भंगिमा का
नदी बन करता कल कल छल छल
कहता हरदम बह चल .. बह चल..
Om Pranam

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