Monday, 7 April 2014

नाज़



सीधी सी बात है 
गहराते हुए पलों की
उथली सी दास्ताँ है 

गहराई तो नापी न गयी
ऊंचाई भी मुँह चिढ़ा गयी
बची .. बीच की उलझी उलझन

तुम और मैं , बस मैं और तुम
तुम तुम नहीं, मैं भी मैं नहीं

हर इंसान अपनी ही गुफा में जीता है
इंसान ही क्यूँ , कायनात यूँ ही जीतीहै
ये तो कुछ चहचहाने की आवाज़े आ जाती है
कभी कुछ सुगंधे ..... पास से होके बह जाती है
और हमको अपने भाग्य पे नाज़ होने लगता है

बृह्मांड में तैरते हुए अज्ञात नक्षत्रो की तरह
टूटते ..... बिखरते .......फिर.... जन्म लेते
उल्कापिंडो से शुन्य में तैरते रिश्तो की दास्ताँ।

जब सभी तैर रहे तो तुम क्यों अड़े हुए हो
बहती हुई नदी में काई लगे पत्थर से पड़े हो
बहा लो जिंदगी को या बह जाओ जिंदगी के साथ
बह चलो बीच धारा में , जुड़ जाओ सागर के साथ। 





































Om Pranam

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