Tuesday 20 February 2018

शुद्धता का आयोजन सरल सा किन्तु क्लिष्ट



स्वभाव से आग उर्ध्वगामी, ऊपर को ही चढ़ेगी
संपर्क में आई हवा के कण भी राख बन झड़ेंगे
तत्व से सना लावा, तत्व गलाता नीचे को बहेगा


अग्नि से धधकता लावा जब जल-तत्व पे गिरेगा
गर्जते घन बिच तड़कती चपलरेख प्रतीति देती
लावा संग ले उतरी हो लावण्यी अग्निबाला जैसे 


भूमि-गर्भ से तप्त निकले सुर्ख-ज्वाला लिए हुए 
न थमता , सर्प सा मार्ग खोजता, बह निकलता   
भावहीन हुआ स्वाहा करेगा जो मार्ग में आयेगा


स्वर्ग से हरहाराति गंगे शिव-जटा में शांत होती 
दुग्ध धार बन निकली, भू सींचती कल्याणी हुई 
तरल धातुमल यूँ निधिकोष बना सिंधु प्रांगण में 

अब आगे का काव्य मर्म  सुनिए ; ऐसा लगता है  मानो कुशल नृतक अपनी सर्वाधिक कौशल से भरी  प्रस्तुती  मंच पे दे रहा हो  और दर्शक दीर्घा से  उठती तालियों की गड़गड़ाहट थमने का नाम न ले रही हो , गर्भ चीर  के सागर की और बहता धातुमल  ऐसे  ही नर्तन करता  जाता और  बहते लावे से  पर्यावरण में ऋतू परिवर्तन  भी हैं , ऐसे उमड़ते शोर करते काले मेघ  बिजली की कड़क प्रतीति देती  मानो सागर से अपने में समां लेने  का अनुग्रह है  ताकि जलनिधि  इस धातु-निधि को  अपने में  गर्भ में रक्खे  , साथ ही  अपने तेज  के सहयोग से  जलनिधि से आग्रह  कुछ उच्च कोटि की जलबूंदो को  वाष्प को समर्पित करने के लिए , और सागर  अग्नि  के अनुगृह  पे  ये प्रार्थना स्वीकार करता है  ,  अपार जल से  चुनी हुई  सुपात्र  जल कण  को भाप बनने के लिए  आज्ञा देता है ,उल्लेखनीय है की - ....ये  जलकण  भव -सागर  में  रहते  हुए  अपनी  सुपात्रता   सुनिश्चित   करते है  -


घुमड़ते श्याम मेघगर्जन अनुग्रह का भास् देती  
अग्नि के आग्रह पे, गरु जलनिध विचार करता
अथाह जल में से चुटकी जल को आज्ञा दे देता 


छन्न-धुन से फिर ऊपर को उठता वाष्प-गुबार
ये भाप अतिशुद्ध है किसी भी कलंक से दूर है
मूल तल से उठ, 
व्योम में विलीन होने योग्य है 

© Lata 
19/02/2018
11:07am


इति श्री


चलता पंखा, फ़ड़फ़ड़ पन्ने 
उसके प्रिय उपन्यास जैसी
उसकी आँख खोईअर्धनम 
गहरी खोज में उपलब्धि में
अर्धखुली और अर्धमूँदी भी

'मोती' थे, सत्तर की उम्र के
गत पचास में चालीस स्पष्ट
खोय क्या क्या पाए जग में
ख़्वाब सा था जो बीत गया
ख़्वाब ही तो है जो आएगा
पिछला गया,असमंजस में
अगला भी यूँह बह जायेगा
इस पल में खड़े, मुड़ देखा
क्यूँ कहे! न लोग हैं न साथ
समझ न आये महत सौंदर्य
रूपकलेवर छद्मी भीड़ का

व्यथित मन ने सहसा देखा
अतल थाह में हीरे की रेख
भविष्य में बहते समय-क्षण
इस क्षण-सम वे जर्जर न थे
अथक प्रयास अनेक स्थति
स्वयं से अपरिचित रहने से
न समझे जानेसे बस हैरां थे

चाहते देख लें बहाव उसका
जानें ! अनंत फ़ैलाव उसका
जान लें जैसा पीछे बह गया
वैसे ही आगे भी बह जायेगा
हाथ में; आज भी न आयेगा
सिवाय संतुष्टि चुटकी समझ
किन्तु असंतुष्टि से पूरित हम
देखे हताशा से भूत की ओर
भविष्य कम्पित उम्मीद साथ

जबके सबही थे उसके साथ
वैसे ही जैसे आज संग-साथ
आगे भी होंगे सभी ऐसे साथ
क्यूँ बेकलव्यथित मन भटके
पर्त दर पर्त मन-रहस्य खुले
वृक्ष केअनेक सूखे पत्ते झड़े
खुली झोळी में गिर थिर हुए

छत पे चलता पंखा, हवा से-
उड़ते फड़फड़ाते सभी पन्ने,
अर्धमूँदे..अर्द्धनम..अर्धखुले-
इतिश्री कहते प्रेम से बंद हुए

© Lata 
20/02/2018
10:14am

Tuesday 13 February 2018

सप्तद्वीप-सप्त पर्वत-नाविक की खोज-नाविक का जहाज



ज्यूँ ; सागर की असीम गहराई में लेटे पड़े हुए हैं
जलसमाधिस्त 
काई सने सप्तद्वीप के उभरे शीर्ष 
उभरे शीर्ष युक्त पर्वत, नीचे रहता सप्तद्वीप सार
इन कंदराओं पे घर किया जलचर जीवजंतुओं ने
जीवननिर्वहन को उन्हें सुरक्षित ठिकाने जो मिले

पर्वत शिखर जलीय हलचल के कारन स्पष्ट और 
गहराई के कारन सुरक्षित भी किन्तु इसी कारण
कहीं उत्तंग, हुआ धूमिल कहीं, कहीं पे अदृश् है


शब्द असमर्थ,पर्वत की इस गहराई को कहने में
अथाह सागर गहरा भी थिर भी हिलोरे लेता हुआ
ऊपर ऊपर गंभीर क्रीड़ामग्न लहरें दिखीं विशाल
लहरों पे तैरता डोलता रुक-रुक बहे इक जहाज

बिंदु छूने की कोशिश में है इक नाविक बारम्बार
किन्तु बिन छुए पार करता, दुबारा लौटने के लिए
ऐसा लगता मानो शिखरबिंदु-जहाज के मेल बीच
अवधान बना जीवनदायी जल, परिचित जीव जंतु
संग-संग, प्रबल अवरोध डालती युग से पड़ी काई

सहायक भी हैं बाधक भी भ्रम देते सहबन्धु बांधव 
बेडा किसी का बिंदु स्पर्श कर पार हो आगे बढ़ता
कभी कोई तो शीर्ष से छूते, रसातल में समा जाता
ॐ मैं, मेरा योगबल प्रबल,समक्ष प्रबल अवरोध थे 
शक्तिहीन न कोई ,अद्भुत देव-शक्ति सम्पन सब  
सभी शक्तिवान सभी ओजवान, सभी स्रोत से जुड़े
जल का कण तरंग लिए या नाविक आत्मसंग लिए

था नाविक का जहाज तिरता चंचल लहरों के ऊपर
नीचे सागर का अथाह गहरा जल हिलोरें लेता हुआ
ऐसे जल के नीचे काई से सने सप्तबिंदु पर्वतशिखर
इनके नीचे छिपे अदृश् सप्तद्वीप,है खोज में नाविक 

© Lata 
On precious day of Mahashivratri  dedicated to all meditative and wise yogi friends 
14/02/2018

Monday 12 February 2018

कैसे रुकोगी

कान्हा की बंसी जब बजेगी जब जब बजेगी, कैसे रुकोगी
झूमते रोकते, डोर से बंधे मिलन को वटवृक्ष तले आओगी


थिरकते पैर से छनछन करे घुंघरू, अनहत की पुकार पे 
प्राण छेड़ती सांवरे की फूँक पे, स्वर-लहरी जब पुकारेगी 


सात स्वर सजाती, सात छिद्र पे फूंक से, सात द्वार भेदती  
राधेरानी जब भी सुनोगी सावरें के गीत कहो कैसे रुकोगी 


गरु श्वांस देंगी ताल, सम्मोहन मोहन खींचेगा अपनी ओर 
कान्हा की बंसी जब बजेगी जब जब बजेगी, कैसे रुकोगी

{On the Call Of Divine, Dear Soul, you have come to meet him, this is the essence of your Journey} 

© लता 
१२/०२/२०१८ 
20: 16 pm

Editing:-13/02/2018
07:37 am

Saturday 10 February 2018

गीली बालू पे खींची लकीर से चार युग


कोई तो बात है यूँ ही चार पन्नो से चार युग नहीं बीते 
तुम्हारे किये को कोई तो है जो बारबार मिटा देता है 

हर बार भरकस जतन से जिन उंचाईयों को छूते हो 
सागर में उठी एक लहर सा कोई उन्हें मिटा देता है 

और गिर पड़ते हो लाचार, जमीं पे रेंगने को फिर से 
मनोबल टूटता नहीं फिर नई चढ़ाई शुरू करदेते हो 

बाकि सब तो ठीक है पर पिछला क्यों भूल जाते हो 
भूल ही जाते हो तो चलो कुछ ऐसे याद कर के देखो 

कभी गीली बालू पे, गहरी लकीर से बने गहरे किस्से 
खींचके देखो कितना भी कैसा भी सच! तुम जो चाहो 

आगे लिखते जाओ, पीछे खुद ब खुद मिटता जाता है
सैकड़ों अक्षर खुदे होंगे पर किनारा कोरे का कोरा है


© लता 
१० / ०२ / २०१८ 
२१:२३ रात्रि 

Wednesday 7 February 2018

उथलपुथल की शिरकत



बहुत कुछ उथल पुथल दिमाग में हुई 
बहुतकुछ उँगलियों ने शिरकत की है

ओह ! कुछ तो लिख गया कोशिश में
पर वो फिर भी कहाँ है, जो मन में था
कुछ पल को आँख बंद कर गहरे गए

आँखे खोलकर, खिड़की से झाँका तो
वही सूरज की धुप, हवा-फूल-पौधे थे
ऑफिस जाने वाले वाहनों की घुर्र घुर्र
हॉर्न की आवाज, माली निराई में लगा
कुछ झोला उठाये सजधज के निकले

कुछ अपने होने पे चिंतित भागे जा रहे
कुछ अपने में हो के,संतुष्ट चले जा रहे
किसको क्या कहते! मुझे ही नहीं पता
फिर भी क्यों दिमाग में उथल-पुथल है
ऊँगली में हरकत लिखा पर कुछ नहीं

सोचा चलो छोडो ! कहना सुनना किसे

ले के चाय हाथ में दिल की मेज सजाये
फिर बैठे करेंगे चर्चा मिलके दो दीवाने
जीने मरने की संग में कसम ली इन्होने
आपस में ये प्रेमी, सैकड़ों बातें करते हैं


© Lata 
08/02/2018

Who m i , Other Than Human first ?

My Attractions to gain was towards unsolved mysteries 
And today I am A Human Master 
मेरा आकर्षण हासिल करना अनसुलझा रहस्यों की ओर था
और आज मैं एक मानव मास्टर हूँ

My Desires coated with emotions my tracing efforts
And today I am Human Machine 
मेरी इच्छाएं मेरे अनुरेखण प्रयासों के साथ लेपित हैं I
और आज मैं मानव मशीन हूँ

My Love is cause of my being, my thirsty runs by lust
And today I am Human Puppet 
मेरा प्यार मेरे होने का कारण है, मेरी प्यास वासना से चलती है
और आज मैं मानव  कठपुतली हूं

My capabilities satisfied to prove different from group 
And today I am  much Different
खुद को समूह से अलग साबित करने की  मेरी क्षमताएं संतुष्ट हैं
और आज मैं मानव बहुत अलग  हूँ

I get everything to-be different but lost A word Human
who was the Source of all variants?
मैं वो सबकुछ हासिल कर पाया पर खो गया एक शब्द 'मानव '
जो सब प्रकार की प्राप्ति का स्रोत था 


© लता 
०८ /०२/ २०१८ 
०८:१५ प्रातः 

मनुष् मनुष्यता दोनों आप



निहुरे निहुरे चल रे मनवा !

यूँ करें आप अपने से जुड़ जाएँ
गहरे मौन में उतर, गोते लगाएँ

फिर एकदिन उस में डूब जाएँ
मनुष् मनुष्यता दोनों आप ही हैं

अनेक उपाय से खुद से लड़ते 
खुद को स्वकृत स्थापित करते 

क्यूंकि; मानुस जन्म में जन्मे है 
मानुस होने का अहसास होगा 

तभी जागेगा मनुष्यता का राग 
ओ तभी पता चलेगा के- 'मैं हूँ'

संवेदनायें लिए, बैठा होगा वहीं 
मनुष् मनुष्यता का दीप जलाये 

आँखे बंद करें, तो संबंध बनेगा 
बाहर ढूंढे सेभी न कुछ मिलेगा 

तो यूँ करेंके अपने से जुड़ जाएँ
गहरे मौन में उतर, गोते लगाएँ

फिर एकदिन उस में डूब जाएँ
मनुष् मनुष्यता दोनों आप ही हैं

और ऐसे आपै आप खोजते हुए 
आपसे आप का संघगठन होगा 

ऐसी शुभकामना मानवमात्र को
आपका जीवन यूँ मंगलकारी हो

Lata 
07/02/2017
13:51pm


उसने कहा - अपने लिए जीना भी कोई जीना है, सुन के बड़ा गर्व हुआ आदर्श वाक्य पे। कहाँ कोई ऐसा सोचता है , जरूर शुद्ध भाव है। परिवार के अच्छे दिए संस्कार है आत्मा की उच्च अवस्था है। और वो शुद्ध भाव से कूद पड़ता है आत्मा के हवन में , जोर की लपटे और वो परवाह नहीं करता , ट्विस्ट है क्यूंकि अब वो होलिका तो था नहीं की शाल से लिपट बचा लेता अपने को , सो जिस दूसरे के लिए काम करना मकसद था , उसी दूसरे के समूह में उसका सर वैमनस्य की बलि चढ़ गया।
किन लोगो के लिए आप क्या बीड़ा उठा रहे है इस्पे भी आपका जीवन निर्भर करता है।
हाँ !! तमाशबीन सब है !धर्म की डोर बिरले के हाथ , कायरों की गिनती नहीं होती हुजूम पे सिर्फ एक क्रूर भारी है, इसके बाद सन्नाटा और इस सन्नाटे में करुणावान के लिए करने को बहुत कुछ शुरू होता है , 
हाँ ! आध्यात्मि और दूसरे समाजसेवी के लिए समाज में करने को बहुत कुछ है , जब सैलाब गुजर जाये तो पीछे टूटे गिरे लकड़ी के दरख़्त को मनोबल दे के फिर से हरा भरा करना भी कम नहीं ।  ऐसे टूटे दरख़्त भी अनगिनत है , और आपके लिए काम भी बेहिसाब , क्यूंकि हवाएं रोज चलती है ,पेड़ भी रोज ही रोज उखड़ते है। आप तो बस समंदर के किनारे अपना वाईपर चलाते रहिये।  समाज में यदि आप सहारा देने पे उतरे आश्रितों की लाइन है ...... आप शिविर लगाइये , ध्यान सिखाईये , योग प्राणायाम से जीवन का संचार बढाईये , शायद मनुष्यता बढे
उस ऐसे ही एक मनुष्य का पिता हाथ जोड़ खड़े लोगो से गिड़गिड़ाता रहा भीड़ सिर्फ सांस रोके आगे होनेवाला क्या है , ये भागेगा या अभागा मरेगा .....सोचते रही , गला आधा कट लटक गया , अगले पल चाकू चलाने वाला भाग गया उसका काम जो ख़तम हो गया था , माँ बेतहाशा भागी अपने बेटे की तरफ लटकते गले को जोड़ अपना रूपट्टा बाँधी सहारे के लिए अपने बेटे को अपने हांथो में लिए जीवन की आस लिए अस्पताल , पर देर हो चुकी थी ! ऐसा मंजर ! 
ऐसा मंजर ! देश धर्म  समाज  के नाम पे मिली हुई चाशनी  में विष जैसा कभी प्रेम मापदंड बनता है , तो कभी घृणा वैमनस्य बदला  दुश्मन हो जाते है , रोज ही कहीं न कहीं , किसी न किसी पे  घटता है , पर जिसके ऊपर घटता है शायद वो ही समझता है ......

मनुष्यता , आज बहुत शर्मिंदा  हूँ , विचलित हूँ !!
निहुरे निहुरे चल रे मनवा !

Monday 5 February 2018

मेरे लाख लिखने पर भी कोरा ही हो



कवमन कुछ ऐसा हो दिन से रात में-
बहता, पूरा करता, काल का घेरा हो


जब मैं अपना दिन सुबह शुरू करूँ
बिन कारन की मुस्कराहट, साथ हो


और मेज पे कैफीन से भरी गर्म चाय
मेरे हाथ में पैनी कर्मलेखनी तैयार हो

बिखरा बिन सिलवट का सफ़ेद पन्ना
जहाँ मात्र चंद लाईने सीधी खिंची हों


मेरी सुविधा के लिए अक्षर फैले नहीं
करीने से लिख पाऊं, इस कागज़ पे


लिखती जाऊं अथक भाव जो उपजे
संग संग मिटने की सुविधा मिली हो



दिन हो पूर्ण तबजब सांध्य से रात्रि हो
मेरे लाख लिखने पर भी, कोरा ही हो

स्निग्ध भोर से इस कोपल का उत्स हो
पुष्प ढल्के सुगंध फैलाता अवसान हो


आयु पूर्ण हो फूल ढल्के, परिणति हो
तरंग हो सुगंध भी न ठहरे,अदृश्य हो

कवमन कुछ ऐसा हो दिन से रात में-
बहता, पूरा करता, काल का घेरा हो

~Lata
blog created 04:54 am 06/02/2018
written- Monday -5/02/2018, 16:53pm

Sunday 4 February 2018

शहर में हादसा हुआ है


सुनो! विषय चयनकर्ता
शहर में हादसा हुआ है नेता, मीडिया, पत्रिका, लेखक, कवी के काव्य गोष्ठियां नुक्कड़-नाटक भड़कते भाषण, धरना! जुलुस की गहराई जाने जानें अब जो सक्रिय है न मालूम क्याक्या और क्यूँ! वे कबतक बोलेंगे फिर सब यूँ शांत होगा मानो कभी हुआ न हो ज्यूँ घड़ियाल गटक के आँख मूँद सोया रेत पे अबोध मासूम सा, पर तैयार शिकार के लिए फिर बीतेगा अंतराल फिर गर्भ-गृह जन्मेगा गर्भ में मिलेंगी कथाएँ कथाओं को खंगालेंगे बने चलचित्र को देख अवाक हैरान! सोचेंगे घटा था! या सपना है और फिर, जन्म लेगा वो ही शोर, कुछ पल फिर सब, शांत होगा क्रूर-घड़ियाल-समय एक डकार जम्हाईले आँख मूँद सोया रेत पे अबोध मासूम सा, पर तैयार शिकार के लिए


English version -
Briefing:- The poetry concept based on 'City Moods', Dedicated to Unwanted crime in the name of Religion Love or Politics after that many sounds get active for many reasons than  Silent take place with no solution, and time just alike crocodile after gulp incident take yawn with all closed eyes .....

Listen! Subject selector
There is an accident  happens in the city
Leader, media, magazine,
Poetry of writer, poet
Concourse nook
Flurry speech, stop!
To know the depth of Julius
Learn now active
Do not know what else
Why! They will speak
Then everything will be cool
As if it never happened
Like after gulp, A crocodile-
taking rest with closed eyes  on the wet sand 
how innocent, but Ready for hunting of Next...
In long pass Intervals of time 
History will be born from womb of time 
Many Stories to meet there 
stories  get again narrates 
the movie get ready for marketing gains 
stunned! Shocked! human Will think
It is Dream  or really happened in past 
And with these  mesmerising moments 
a pure political harsh-noise will take place 
expert opinions on those passed  moments
Then everything will be cool
And  time just alike Cruel Crocodile
After belching takes yawn, and
Taking rest with closed eyes  on the wet sand 
how innocent, but Ready for hunting of Next.... 

© Lata 

Date- Sunday . 04 / feb / 2018 , 15:07pm

@ Feeling sorry for any mistake in writing. regards to all 

Thursday 1 February 2018

जुबैदा सोच में हूँ !


ऐसी ना-इंसाफी ?
वो भी अपने प्रति
क्यों जुबैदा ?
ऐसा उपेक्षा का भाव ....
इस मिले दिव्य जीवन के प्रति
मंदिर सी देह के प्रति अकर्तव्य का भाव
आखिर संतुलन क्यों खोया तुमने
कौन से अपमान की ज्वाला में जल गयी
द्वेष का जल कब  सर 
 के ऊपर हो गया
जो बाढ़ की उफनती नदी बन गहरे आक्रोश में घिर गयी
अब विष उगलती नागिन सी क्यों छटपटाती  हो 
क्यों उसी शख्स को सर्पदंश दे कर भी चैन न पाती  हो 
न सोचा ! क्या करोगी तुम इतनी सहानुभूति बटोर कर
इन उथली सहानुभूतियों से तो तुम्हारा इलाज न हो सकेगा
मानसिक असंतुलन से विक्षिप्त क्यों हो गयी
इलाज तो तुम्हारा फिर भी वो ही शख्स करेगा
जो आता है हर बार तुमसे मिलने को
जो तुम्हारे थप्पड़ खाता है
और कुछ निश्चित पैसे अस्पताल में भर
थके कदमो से जो लौट जाता है .... दोबारा आने के लिए
जिसने दवा भरण पोषण की जिम्मेदारी
तुम्हारे जीवन की जिम्मेदारी कसम की तरह उठा रख्ही है
और जिसको हर बार डस, तुम शांत होती हो
कुछ समय के लिए मौन में खोती हो
इतना विष कैसे जन्मता है ? 
धर्मो की चाक पे चढ़ी हो , पर सभी 
धर्मो से  प्रथम , प्रकर्ति प्रदत्त जिम्मेदारी लिए स्त्री हो तुम !
कैसे तुम सहती हो इसकी असह्य भीषण ज्वाला
तपन घाव तुम्हारा जिसको नेह अमृत भी कम न कर पाता
अपना मानसिक संतुलन खो कर ये क्या किया
अपने घर में न हो ....तुम हो पागलखाने में
अनजान वेतनभोगी कर्ताओं के बीच तुम्हारा रहना
जीवन तो तुम्हारा ही था न !
अपने जीवन का अधिकार तुमने क्यों औरों को सौंप दिया
समय रहते क्यों कर तुम ऐसा न सोच पायी जुबैदा !

🙏
सन्दर्भ : एक स्त्री "जुबैदा "अपने निजता के अपमान से जल के विक्षिप्त हुई और सब भुला बैठी , अपना जीवन प्रेम कर्त्तव्य मानसिक असंतुलन ने सब नष्ट करदिये। तो पागल होने से पहले जुबैदा ये जरूर सोचना ! अपनी निजता की शक्ति संजोना और कमजोर बन के नहीं बल्कि साहस से जीवन जीना।