Friday 30 August 2019

अल्लाह बड़ा रहमदिल है


काले लिबास में लोग थे बेवजह बकरा बना दिया 
लो; घुटने हमारे बंधे है और आँखों पे पट्टी चढ़ी है

यूँ तो तेरे मुल्क में आये हम सभी बकरे हैं बंधे हुए 
जन्नत की बकरीद में लगता है इसबार मेरी बारी है

कहते हैं वे तुझे याद कर अल्लाह रहम-रहम कहूं 
बच सकता है तो बच ले अल्लाह बड़ा रहमदिल है

तेरे तरीके की शान! बकरीद का जश्न यहाँ खूब है 
पर ये बकरे कुछ ज्यादा ही लाचार और बेबोल है

पल में ,नजरो में नजारा था जब इक जुस्तजू वास्ते
बकरीद दिन मुहैया किया क़ुर्बानी के जश्न के लिए

जिसे न देखा न जाना उस वख्ती आफत से बचने 
चाकू पे धार तेज की, ताकि हलाली ठीक हो सके

अंजानी आफत वास्ते क़त्ल कर दिया था ये कहते 
बच सकता है तो बचले अल्लाह बड़ा रहमदिल है
© Heart's Lines / Lata

My apologies if hurts festive feel, out of celebration here is something more to think.

Thursday 29 August 2019

सोच में हूँ


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सच में अब मैं सोच में हूँ
अजब कश्मकश जद्दोजहज में हूँ
आदमी हुनर के लिए जीता है
या हुनर अपने आप सर चढ़ बोलता है

सच में अब मैं सोच में हूँ
दिल से निकली बात दिल तक पहुंची
या दिल तक बात पहुँचाने
मैं अथक कोशिशों को अंजाम देता हूँ

सच में अब मैं सोच में हूँ
सच था कभी लिखता था दिल से दिल की
अब तो दिलों तक जाने को 
घूमेरस्ते तंगगली उलझेनुक्कड़ तै करता हूँ

© HEART'S LINES / LATA 

Picture curtsy Chaman Nigam ji  

कई मंजिल का पुराना मकान है

कई मंजिल का पुराना मकान है

ऊपरी वाली मंजिल वर्षों से बंद है

उस मंजिल तक पहुँचने के लिए

सीढियाँ फिलहाल गर्द से भरी हैं


ये मेरा इक अकेले का बनाया नहीं

पीढ़ियों का संजोया हुआ मकान है

पीढ़ी से गुजरता हुआ साफ़ सुथरा

धीरे धीरे लोग कम मंजिले बंद हुई


याद है रौशनी से धुला  मेरा मकान

ऊपरी माले में थी बुजुर्गों की बैठक

खिड़की से दिखती बारिश की झड़ी 

दूर आसमाँ पे खिला अपना इंद्रधनुष


छज्जे में खिलती हुई भोर की सुबह

दोस्त तोता पिंजरे में बोले राम-राम

याद है छत की मुंडेर पे आ के बैठा

मोर रात भर चमकते सितारे चुगता


पर अब कई बरसों से माला  बंद है

अब कोई भूले वहां आता जाता नहीं

नीचे के घर में भी कई कमरे बने है

बच्चे कभी कभार मेहमान  बनते है


जिन्हे पता नहीं घर में ऊपरी माला है

जिसमे कभी खुशियां तोता था मोर था

मेरी मंजिल पे संगीत था बेहद सुरदार

नए होने की कोशिश में थोड़ा बेसुरा है


मेरे बच्चे भी अजब पहचान बदलते हैं

जैसे पहले थे इस बार वो नहीं लगते हैं

खुदा जाने वो ही आते  है या कोई और

न मालूम इत्ती जल्दी रंग में कैसे ढलते है


शराब नहीं पीता अपना पयला भरता हूँ

नशे में  जीने की ताकत बढ़ती जाती है

सिगरेट नहीं  पीता पर माचिस मांगता हूँ

जायेंगे बहुत कुछ जलाके ख़ाक करना है


मेरे इस मकान में बस दो जीने उतर के

अँधेरा तहखाना है किसी को नहीं मालूम

ख़ामोशी का दिया यहाँ चुपचाप जलता है

जहां सुकून सोया हुआ मेरा बेफिक्र होके


बस इत्ती  गुंजाइश मेरे वास्तेउसने छोड़ी है

जब मैं तक के  वो दो सीढियाँ उतर पहुंचू

पहलु में लेट जाऊं गले लग केआहिस्ता से

उसके बाजू में सर रख के चुपचाप सो जाऊँ



© Heart's Lines / Lata 


* प्रेरणा स्रोत :  गुलजार साहब 

Monday 19 August 2019

चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा



हुत  खोज प्रयास के बाद एक नाम  कव्वाली गाने वाले का सामने  आ पाया  , जिसका संगीत दिया अनु मालिक ने  फिल्म - चढ़ता सूरज धीरे धीरे , जिसमे गायक  अजीज मियां  या अजीज नाज़ां / मुज्तबा अजीजज नाज़ां है  जो  मशहूर कव्वाली गायकी में  रहे है  (थे ), अन्य कव्वालियां भी अजीज के नाम है जैसे  * झूम बराबर झूम शराबी , और  * मैं नशे में हूँ , 7th May 1938 – 8 October 1992 इनका जीवन काल है ,  इससे अधिक  लिखने वाले शायर का नाम अभी तक नहीं पता चला ,  अद्वैत को इशारा करती इस कव्वाली को   हिन्दू  भक्ति  धारा  में भजन में भी शामिल किया गया  और ग़ज़ल में भी  कई फनकारों  ने इसे अपनी आवाज़ भी दी  किन्तु इसकी धुन से  छेड़छाड़  किसी ने भी नहीं की। 


ज जवानी पर इतरानेवाले कल पछतायेगा 
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 
ढल जायेगा
ढल जायेगा
ढल जायेगा
ढल जायेगा
Kumar Vishvas : बनारस में गंगा तट पर बैठ कर माँ वाणी की साधना करते और कबीर परंपरा को जीते भारत रत्न बिस्मिल्लाह ख़ान साहब को उनकी पुण्यतिथि पर प्रणाम। आपके सुर युगों तक हर मन में स्पंदित होते रहेंगे और आप सदैव संगीत के शिखर-सम्राट के रूप में स्थापित रहेंगे। नमन। 🙏[words and picture taken from Kumar Vishvas who given thanks for contribution Sand Art - Shri Sudarshan Patnaik]
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तू यहाँ मुसाफ़िर है ये सराये फ़ानी है
चार रोज की मेहमां तेरी ज़िन्दगानी है
ज़र ज़मीं ज़र ज़ेवर कुछ ना साथ जायेगा
खाली हाथ आया है खाली हाथ जायेगा
जानकर भी अन्जाना बन रहा है दीवाने
अपनी उम्र ए फ़ानी पर तन रहा है दीवाने
किस कदर तू खोया है इस जहान के मेले मे
तु खुदा को भूला है फंसके इस झमेले मे
आज तक ये देखा है पानेवाले खोता है
ज़िन्दगी को जो समझा ज़िन्दगी पे रोता है
मिटनेवाली दुनिया का ऐतबार करता है
क्या समझ के तू आखिर इसे प्यार करता है
इसे प्यार करता है
इसे प्यार करता है..
अपनी अपनी फ़िक्रों में
जो भी है वो उलझा है 
ज़िन्दगी हक़ीकत में
क्या है कौन समझा है 
आज समझले ..
आज समझले..कल ये मौका हाथ न तेरे आयेगा
ओ गफ़लत की नींद में सोनेवाले धोखा खायेगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 

मौत ने ज़माने को ये समा दिखा डाला
कैसे कैसे रुस्तम को खाक में मिला डाला
याद रख सिकन्दर के हौसले तो आली थे
जब गया था दुनिया से दोनो हाथ खाली थे
अब ना वो हलाकू है और ना उसके साथी हैं
जंग जो न कोरस है और न उसके हाथी हैं
कल जो तनके चलते थे अपनी शान-ओ-शौकत पर
शमा तक नही जलती आज उनकी क़ुरबत पर
अदना हो या आला हो
सबको लौट जाना है 
मुफ़्हिलिसों का अन्धर का
कब्र ही ठिकाना है
जैसी करनी ...
जैसी करनी वैसी भरनी आज किया कल पायेगा
सरको  उठाकर चलनेवाले एक दिन ठोकर खायेगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 
ढल जायेगा 

मौत सबको आनी है कौन इससे छूटा है
तू फ़ना नही होगा ये खयाल झूठा है
साँस टूटते ही सब रिश्ते टूट जायेंगे
बाप माँ बहन बीवी बच्चे छूट जायेंगे
तेरे जितने हैं भाई वक़तका चलन देंगे
छीनकर तेरी दौलत दोही गज़ कफ़न देंगे
जिनको अपना कहता है सब ये तेरे साथी हैं
कब्र है तेरी मंज़िल और ये बराती हैं
ला के कब्र में तुझको मुरदा बक डालेंगे
अपने हाथोंसे तेरे मुँह पे खाक डालेंगे
तेरी सारी उल्फ़त को खाक में मिला देंगे
तेरे चाहनेवाले कल तुझे भुला देंगे
इस लिये ये कहता हूँ खूब सोचले दिल में
क्यूँ फंसाये बैठा है जान अपनी मुश्किल में
कर गुनाहों पे तौबा
आके बस सम्भल जायें 
दम का क्या भरोसा है
जाने कब निकल जाये 
मुट्ठी बाँधके आनेवाले ...
मुट्ठी बाँधके आनेवाले हाथ पसारे जायेगा
धन दौलत जागीर से तूने क्या पाया क्या पायेगा
चढ़ता सूरज धीरे धीरे ढलता है ढल जायेगा 

Friday 16 August 2019

बंटवारा: १९४७ की खूनी रात

बंटवारा और उस वख्त के हालत इसलिए इतिहास में महत्वपूर्ण नहीं के इसके पहले लोग  अलग अलग कारणों  से काटे गए या सामूहिक जलाये गए , इस पार्टीशन के पहले भी और इसके बाद भी क्रूर मानवीयता के दंश इतिहास में मिलते है , लोगों को  ही इसे न समझने की बुरी बीमारी है , और उन्ही हालातो में दोबारा लौट जाने या तो विजय हासिल करने या शहीद होजाने की भी साहसिक ख्वाहिश इंसानो की ही है ,  इसीलिए कुछ दिन दहसत में खामोश होकर  फिर किसी नये  उपद्रव को अंजाम देते है या अंजाम को भोगते हैं  , ऐसा न होता तो हिटलर के नरसहार के बाद  लोग सुधर गए होते  या द्व्तीय विश्व युद्ध के बाद आतंकवाद न आया होता , या धरम के नाम पे जगह जगह मानवबम  या केमिकल बम  न फूटते , या कश्मीर सरीखी धरती धर्म और आतंक के लिए खून से न सनती।  पर हुआ  , और आजाद भारत में  बटवारे की त्रासदी के बाद ये भी हुआ , राजनितिक संघर्ष का दूसरा नाम युद्ध है।  जिससे कभी भी इंकार नहीं , और पागल लोगो के विचार उनकी  शहीदी शृद्धा  कुर्बान अंधभक्ति  किधर को जाये,  पता नहीं।  इंसान समझदारी  और मूर्खता  का अद्भुत संगम है ,  ऐसा इंसान जिसने जंगल के कानून से अपने को सुरक्षित करने के बाद सभ्य और निरंतर विकसित होते  मानव-समाज  में अपना योगदान दिया तो नेस्तानबूत होती मानवीयता के लिए अपने श्रम का  कम योगदान नहीं किया।  

सा ही  मानवीयता की मर्यादा  को ध्वस्त करता हुआ काल  जिसमे उस वख्त एक पीढ़ी लगभग समाप्त हो गयी  उस पीढ़ी में  कुछ  वृद्ध थे  जो उसी के आस पास चले गए कुछ युवा थे  जिनका सशक्त योगदान भी था  वे  सत्तर के तीस -चालीस  साल के लम्बे काल में दुनिया से कूच  कर गए , तकरीबन ! उस वख्त  सन सैंतालीस  या सन अड़तालीस में  जन्मे भी  या तो नहीं हैं  या वृद्ध हो गए हैं। इसकारण चश्मदीद तो  मिलना लगभग असंभव  है,  फिर भी समय समय पे  कवी अपने शब्दों से उस काल को जीवित करने का प्रयास करते है  , ताकि कुछ मूरख सुधर सकें और  उजड़ती मानवीयता को थोड़ा सहारा मिले -


उन भावों को कैसे शब्दों का सजीव जमा दोगे कवि..!

दहशत में खुनी हुजूम से बचते वो भागे थे इक तरफ

बात उन दिनों की है जब दुनियां धीरे चलती थी पैरों पे

न सूचना साधन न कोई वाहन रौशनी भी उगे सूर्य तक

ऐसी रात्रि में खाना खा  एकदूसरे को शुभ कह सो गये

के अचानक हल्ले से हड़बड़ाई आँखों ने नजारा देखा

खूनीनदी बिखरामांस चीखचिल्लाह बचाओ मारो स्वर

और कुछ पल को एक खामोश खुनी सन्नाटा, के उठीं-

अपने बच्चों को गठरी में छिपा भागते पैर की पदचापें

उन पदचापों का पीछा करती, भागतीं अनेक पदचापें

जैसे तैसे अँधेरी गलियों से गुजरते अपनों से बिछड़ते

भूत खून से भरा वर्तमान  में होश गुम  भविष्य अँधेरा

स्टेशन पे अम्बार-ठूँसठूंस आपाधापी छूटा तो वो गया

अपने जीवन की साँसे छीनते वख्त से जा बैठे डब्बे में

के अचानक फिर एक हमला और बैठे कई लोग गिरे

खून से कपडे भीगे लाशों के नीचे कुछ साँसे बची हुई

औ गाडी चल पड़ी अंजानी दिशा को नयी सरजमीं पे

क्या जान बच गयी थी ! अंदेशा था ! टटोला आस पास

कोई नहीं था जीवित पर कुछ साँसों की आवाजें आयीं

जो जीवित बचे थे उनमे गजब का रिश्ता बन गया और

गाडी चलती रही ठंडी हवा लगती रही खून सुख गया

भूख से अंतड़िया कुलबुलाने लगी, लाचारी के शिकार

नए वतन में स्वागत नहीं कोई पेट का जरिया नहीं था

एक गठरी चंद  बचे लोग आँखे धुंआ धुंआ और केम्प

इतनी भी  ताकत नहीं के याद करे बस दो दिन पहले

परिवार के साथ थे भोजन में स्वाद था हंसी थी खेल था

आँखे लो भर आयी इन्हे यही रोक इनसे  काम हैं लेने

वो घर वो वतन वो जमीं वो घर न जाने लोग कहाँ गए

ये वख्त ये  संघर्ष ये दौर ये झुकी कमर ये बीमार देह

ये लड़ने का हौसला यहाँ भी जिंदगी तलवार की धार

कलके जिद्दी बच्चे को हाथजोड़ पैसे कामना आ गया

आज फिर तलवारो की धमकी देते है दहसत देते है

आज फिर वो हमें उन रातों की यादे  याद दिलाते हैं

आज फिर उन भूले हुए जख्मों पे वो नश्तर घुसाते है

आज फिर वो बंटवारें के मंजर की आवाज उठाते है

आज फिर कुछ गद्दार जा मिल उनके ही स्वर गाते है

आज फिर १९४७ की आधी रात को सीटी देती गाडी

आज भी गहरे में उसी स्टेशन पे वो ही गाडी खडी है

भागते बचाओ बचाओ, पीछा करते  मारो मारो स्वर

कैसे हम भुला पाएंगे ! पीढ़ियों कैसे तुम भूल पाओगे

क्यूँकर हम वो दोहराएं, क्यूँकर तुम उन्हें दोहराओगे

उन भावों को ऐसे शब्दों का सजीव जामा दो कवि..!