Monday 7 April 2014

स्वाति की बूँद सा संग्यान ( Kavita_Sankalan )




रिसते जीवन के मेघ !

बरस बरस के आस्मां 

से फिर__फिर बरसा

पर .. वो .. बूँद कहाँ !

जो .. गिरते .. ही 

व्यर्थ .. न .. जाती 

मोती .. बन .. जाती

भाप .. न .. बनती 

सूख .... न .... जाती

प्यासी सीप तैरती   

सागर  में अधर खोले

ठानी .. है उसने.. भी

नहीं..चाहिए खरा..पानी 

स्वाति .. का .. शीतल 

मीठा .. जल .. मिले

तो .. मोती .. बनाऊं 


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ॐ प्रणाम 
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काले मेघ श्वेत मेघ 

कितने .. मेघ .. आये 

बरसे और भाप बन गए

मेघा रे मेघा ....  बता न ! ! !

कहाँ गवायाँ तूने अमृत ,


धरा है बंजर, नदिया मरती 

कुएं है सूखे , खेत है खाली

घात लगा के चकवा बैठा

नजरे जमाये अभी तक 

आस्मां की ओर 

मेघा रे मेघा... बता न ! ! !

कहाँ गवायाँ तूने अमृत 


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ॐ प्रणाम 

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चलती चक्की दो पाट की 

पड़ते - गिरते - पिसते बोल 

मेरी छन्नी कितनी कर्मठ 

छनती जाती .. झरती जाती


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ॐ प्रणाम 
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छलकती स्याही...भरते पन्ने 

खाली फिर भी कोरे कागज 

अजब देश की गजब कहानी

जितनी _भर्ती ; उतनी _रिसती 




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ॐ प्रणाम 


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प्रियतम, अब के जो  बरसो; तो इस तरह 

भीग जाए  तन  और भीग जाए अंतर्मन 


भीग जाए पात पात , भीग जाए डाल डाल

भीग जाए ये जमीं  भीग जाये अम्बर तना


रंग दे दू मैं सारे तुझे घो अपने प्रेम में 

वो ही रंग बिखेर देना अपनी बगिया फूल में 


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ॐ प्रणाम 
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