Tuesday 6 November 2018

सबक

कभी जिंदगी में अगर थक  जाओ
किसी को कानोकान खबर न होने देना
लोग टूटी ईमारत की ईंट तक उखाड़ के ले जाते है

तुम कुछ चाह भी नहीं सकते
अगर खुदा न चाहे

जरुरी नहीं किसी की बद्दुआ  तुम्हारा पीछा कर रही हो
कभी किसी का जब्त  और बेपनाह  सब्र भी तुम्हारी खुशियों को रोक लेता है

कोई हाथ से छीन के ले जासकता है .. पर नसीब से नहीं

इंसान की मर्जी  और ईश्वर की मर्जी का फर्क भी *गम है

कल एक इंसान रोटी के बदले  करोड़ों की दुआ दे गया
पता ही नहीं चला के गरीब कौन

शख्सियत अच्छी थी
ये लब्ज़  तब सुनने को मिलते हैं  जब शख्स ही नहीं रहता

बंधी हैं हाथ में सभी के घडिया
पर पकड़ में  हाथ में वख्त का लम्हा किसी के भी नहीं

कितने चालाक हैं मेरे अपने भी
तोहफे में घडी तो दी पर वख्त नहीं।
दुआ तो दिल मांगी जाती है  जुबान से नहीं
कुबूल तो उसकी भी होती है जिसके जुबान ही नहीं

पीठ हमेशा मजबूत ही चाहिए
क्यूंकि शाबासियाँ और छुरे ;  पीठ पे ही मिलते हैं।

अपनी दौलत पे कभी ऐतबार न करना
क्यूंकि जो गिनती में आ जाये  वो लाज़मी  ख़तम होने वाला है

जब भी गुनाह करने का दिल चाहे  तो चार बातें याद रखो
भगवन देख रहा है , फ़रिश्ते लिख रहे है  ,
मौत हर हाल में आनी  है , और वापिसी का टिकिट  भगवन ने साथ भेजा है।

कुछ सवालो के जवाब सिर्फ वख्त देता है
और जो जवाब वख्त देता है वो लाजवाब होते हैं।

दो तरीके के इंसानो से हमेशा होशियार रहो
जो तुममे वो ऐब बताये जो तुममे है नहीं  या दूसरा वो जो  तुममे वो खूबी बताये  जो तुममे नहीं।

झूठ का भी एक जायका होता है , खुद बोला तो मीठा , दूसरा बोले तो कडुवा।

जब इंसान  समझता है  की वो गलत भी हो सकता है  तो वो ठीक होने लगता है।

पिता की दौलत पे क्या घमंड करना , मज़ा तो तब है  दौलत अपनी हो और घमंड पिता करे ।

ऐ  खुदा  आईना कुछ ऐसा बनादे , जो चेहरा नहीं नियत  दिखा  दे।

शतरंज में वजीर ,  और जिंदगी में जमीर मर जाये तो खेल ख़तम समझलो

इंसान की इंसानियत ख़तम होजाती है , जब दूसरों के दुःख पे हंसी आने लगे।

एक बात हमेशा याद रखना , जिंदगी में किसी को धोखा न देना
धोखे में बड़ी जान होती है  ये कभी नहीं मरता , घूमकर आपके पास लौट आता है।
क्यूंकि इसको अपने ठिकाने से बहुत मोहब्बत होती है।

अजीब तरह से गुजरती है जिंदगी
सोचा कुछ ,  हुआ कुछ , किया कुछ , मिला कुछ।









Sunday 2 September 2018

हाँ तो! उसके मुस्कराने का अर्थ समझ आया के नहीं !



शख्सियत द्वित्व की, छलांग अद्वैत की 
वे कहते जावे हैं - 'हैरत में हूँ निःशब्द हूँ क्या कहूं !'
सयाने जानते हैं सूचना में है सो कहने से पहले बूझते है 
ऊर्जावान तत्व प्रवाहशील  
आत्मतत्व है जल्वत, सो कहते जावे हैं -
जीवनदाता पानी रे पानी तेरो रंग कैसा रे! 
जामे मिल जावे लगे उसई जैसा रे...।
बिलकुल शक्तिपुंज जैसा रे 
और कहे हैं ! हरी बोल ! 

अद्वैत से जब जन्मे और द्वित में आये तो 
देह अलग अलग मति अलग अलग 
द्वित्व कहें तो एक की नजर में सामने वाला 
एक पक्ष यानी एक समूह 
ऐसे में देह समूह तो देह प्रथम हुई 
प्रथम बोले  तो प्राथमिकता 
मानव समूह हुआ तो मानव ही प्रथम प्राथमिक 
देश तो देश प्रथम ,  धर्म तो धर्म प्रथम 
समूह जब जैसा बना उसी का गान सुनाई देवेगा
अपने ही समूह की आवाज और धड़कन 
उसई  की पूजा  उसई  के संस्कार 
दिखाई देवे, कहाई, और सुनाई देवे है ....।

यही राजनीती में देखा यही धर्मनीति में 
समस्या खड़ी दल-समूह बदलते ही 
जैसे दिखना सुनना कहना सब बंद.....
द्वित अजूबा नहीं निहायत प्राकृतिक होवे है ....
परदेसियों की बोली भाषा होव है ....पर 
परदेस की आवाज ही कहाँ सुनाई देवे है ... ? 
सुन भी लें तो , समझ न आवे है ! 
सहजता खोयी गई  स्वीकृति के आभाव में 
पूरी की पूरी जन्मी घटनाये ही , मानोअजूबा लागे है ....। 

ऐसे समूह बदलते ही, समस्या खड़ी होवे है 
अगले का कछु कहा अब सुनाई न देवे है ...
दिखाई न देवे .....छूना तो नामुमकिन भया .....
द्वित्व में ये इन्द्रियां भी अपने ही समूह में काम करे हैं 
आप्रेसन करवा  देखा परदेसी को गैर-एलिमेंट जान 
मुई ये देह भी त्याग देवे है ...

ऐसे में इसी द्वित्व के साथ मजबूर हो 
एक भक्त ने अपने भगवान् को ऐसा अनकहा कहा
एक प्रेमी ने अपनी प्रेमिका को बेबूझ ही कह डाला 
तो ; प्रेमिका ने अपने प्रेमी को कुछ ऐसन कहा
सालों साथ रह लगा के सच्ची में ! 
सम्बन्ध-जगत .. द्वित्व संग बेबूझ होवे है ....। 

ऐसे में , समूचे मृतजगत वासियों ने 
पूरे अमृत-जगत को ही बेबूझ कहा, 
और भी कहा-
-'जितना भी कहता जाता हूँ तुम अनकहे ही रहते हो '
तो; आगे सुनें , ऐसे में  द्वित्व जगत में 
आत्मा को भी हम हिलते डुलते प्राणी 
महामूर्ख नजर आये जब आत्मा को महामूर्ख नजर आये तो 
परमात्मा .....! हाँ अब आप कल्पना कर सके हैं ! 
द्वित्व में अद्वैती महाधामवासी हमको कैसे देखे है ....।

हाँ तो! उसके मुस्कराने का अर्थ समझ आया के नहीं !

Saturday 1 September 2018

मैं एक आत्मा हूँ : The Soul एक परिचय (poetical Intro)






मैं एक आत्मा हूँ
देह! सुन्दर व्यवस्था, मेरे लिए
मेरे हाथ में लेखनी प्रारब्ध की
स्याही भरी है इसमें भाग्य की

मैं एक आत्मा हूँ
कोरा कागज है, इसके हाथ में
प्रारब्धलेखनी से निर्देशित लेख
भाग्यस्याही लिखती बनते कर्म

मैं एक आत्मा हूँ
सुविधा है मुझे थामी लेखनी से
क्या लिखू जो स्याही बन उभरे
मेरे कोरे कागज को पूरा रंग दे

मैं एक आत्मा हूँ
चेतना मेरी ही समझ का हिस्सा
जो मुझे शक्ति रूप मिला हुआ
चाहूँ जब, लेखनी को विश्राम दूँ

मैं एक आत्मा हूँ
समझती हूँ लेखनी के रुकते ही
रुक जाएगी फैलती भाग्यस्याही
और उभरे अक्षर कोरे कागज पे

मैं एक आत्मा हूँ
मेरी शक्ति जिससे प्रारब्ध हारा
भाग्यसहमा कर्मचाक ज्यूँ थमा
पाया कागज कोरा का कोरा है

_()_


Friday 18 May 2018

A North Indian Rural Marriage Folk - कनउजी कनउजी जनि करो बाबा ...

उत्तर भारतीय विवाह लोक गीत

A North Indian  Rural  Marriage Folk   




गीत 

कनउजी कनउजी जनि करो बाबा , तो कनउजी हैं बड़ी दूर 
अरे इ कनवाजिया  दहेज़ बड़ो मांगे 
तो तेरे बूते दियो नहीं जाए
 *****

कहाँ पइओ बाबा मोरे अनगढ़ सोनवा  
तो कहाँ पयियो लहर पटोर , कहाँ पईयो बाबा मोरे  सोने की चिरईया 
तो इ कनवाजिया को मोल
 *****

बाबा कहते है -
सोनरा घरे बेटी अनगढ़ सोनवा तो बज्जा के लहर पटोर 
ओ तुम तो बेटी मेरी सोने की चिरईया
तौ  ई  कनवाजिया  को मोल
 *****

अब  आगे बेटी मन में सोचती है -

माया ने दीन्हो है  अनगढ़ सोनवा तो बाबा ने लहर पटोर 
भईया  ने दिनों है चढान को घोडिला 
तो भाभी ने ढोली भरे पान
*****

माया का सोना जनम भर पहिनब, फटी जाईये लहर पटोर 
भईया का घोडीला मै सहर घुमाईहों, 
तो सड़ी जाईये ढोली भरे पान
*****




आगे और सोचती है  अपनी भावनाओं को समझती है , विदा के समय अंतिम पंक्तियों में बहुत मार्मिक और भावुक भाव है -


विवाह संपन्न हो गया अब  विदा की बेला है :


माया  के रोये से छतिया फटत है , तो बाबा  के रोये सागर ताल
और भइआ  के रोये से पटुका  भीगत है
तो भाभी खड़ी मुसिकाएँ
 *****

मां  और बाबा  , भइआ  के  साथ में भाभी भी  इस भावभीनी  विदा की बेला पे क्या सोचती है -

माया कहें बेटी नित उठी आयो  तो बाबा कहे  छठे मॉस 

औ भईया कहें बहिनी काम औ काजे 

तो भाभी कहें काह काम
******

The End  of  folks 

कनउजी कनउजी जनि करो बाबा , तो कनउजी हैं बड़ी दूर 
अरे इ कनवाजिया  दहेज़ बड़ो मांगे 
तो तेरे बूते दियो नहीं जाए 

सन्दर्भ-

त्तरभारत में दो मुख्य ब्राह्मण समुदाय कान्यकुब्ज ( गंगा नदी के पार बसने वाले )  और सर्यूपारिणी (सरयू नदी  के पार बसने वाले )  इन दो मे से भी ये गीत खास कर कान्यकुब्ज समुदाय में विवाह समारोह में महिलाओं की ढोलक मंजीरे के साथ खासा प्रचलित है 

References - Two of the main Brahmin communities Kanyakub (across the river Ganges) and Sarayuparini (settling across the Saryu river) in North India, among these two especially in the Kanyukub community, this song is very popular with the dholak Manjira In marriages

लोकगीतों की खूबी है की वो समुदाय की अच्छाईयां और बुराईयां  गीत में गा के कहते हैं , सो इसमें भी यही है , विवाह योग्य  एक बेटी अपने पिता से पूछती है  कई सवाल , दहेज़ से सम्बंधित 

It is the fame of the folk songs that they are called in the songs of goodness and evil of the society through the song, so this is the same in this, a marriageable daughter  asks her father, many questions, related to dowry and  worried how her father  arranged all 

 बाद के  गीत बोलों में वो अपने भाव प्रकट करती है  सम्बन्धो की वास्तविकता को लेके , मां का प्रेम कितना पवित्र है उसके लिए , कितना शुद्ध है  पर पिता उससे  थोड़ा कम है  , मां  की निश्चलता के आगे पिता की एक डिग्री  फीकी है  और भाई की और कम  जबकि भाभी की शून्य,  जो उनकी भावनाओ में उनकी सोच में  उनके उपहारों के चुनाव में  दिखता भी  है 

In the subsequent song lyrics, he expresses his feelings, taking the reality of the relationship, for how much the love of the mother is pure, how pure it is, but the father is little less than that, a degree of a father is faded and the brother's less  from her father and brother's wife have  zero-effection  so all reflected  in their  emotional dealings and wishes 

स गीत में  परायी हुई नहीं  पर होने जा रही बेटी की संवेदनशीलता  बहुत सुन्दर ढंग से उभरी है , जहाँ उसे पल पल  लग रहा है  की इस विवाह की रस्मअदायगी के बाद वो विदा कर दी जाएगी।  और फिर... 


In The song, She is in her parental home, but the sensitivity of the daughter going to be very beautiful has emerged, where she is feeling the moment that the marriage ceremony will be done after she handed over to In-laws and then...

उसको अपनी मां की भावना भी छू रही है  जहाँ उसे लग रहा की मां सब जानती है  लोकाचार के बारे में  और इसीलिए वो उदास भी है , वो चाहती हैं की मैं उनसे रोज मिलने आऊं ।  पर मेरे पिता चाहते है  छह माह से पहले नहीं आना चाहिए , और मेरे  भाई तो कहते है  काम काज हो तो आ जाना  बार बार क्या आना , ....भाभी शायद  इतना भी नहीं चाहती  इसलिए वो सिर्फ मुस्करा के रह जा रही है .....

She is also feeling, the intuitive-feeling of her own mind, where her mother feels the reality of everything, her mother knows about ethics of society and that is why she is also very sad, She wants me to come visit her every day. But my father does not want to come before of six months, and my brother says that if I can come in marriages or festivals then will be good and Brother's wife wants even then no need to come.. better to stay in husband's home, so she is just giving Smiles.

enjoy !!

प्रणाम 

Monday 7 May 2018

विरोधाभास - मानो या न मानो



[महाध्यानी वो ज्ञानीयोगी ये और हमध्यानी ]


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शिव के जब दो नेत्र खुले है जब तीसरा कहाँ खुला होता है
तीसरा नेत्र खुलते ही, वे दो स्वतः महाध्यानी के बंद होते है



ये जागृत आधे पे ठहर गया आधेआधे में सौदा पक्का हुआ
दो नेत्र ज्यूँ आधे बंद हुए, तीसरा उतना ही स्वतः खुल गया


संकेत ही संकेत, मुझ से शिवा तक, आधे खुले पूरे ढके भी
ज्ञानीयोगी अर्धबंद अर्धखोल पाते, हम मूँद करही खोलते है


जानो जब आँखे बंद किये हैं तब अपनी आँखे खोले होते हैं
जब हम मौन में होते है तभी हम, असल बात करते होते है


धूनी लगा बैठ गए हों, तब ही हम लम्बी यात्रा शुरू करते है 
वधु लम्बे-घूँघट में ! तो उसका अनावरण वहीँ शुरू होता है


मृतदेह मुँह तक ढांप एक श्वेतवस्त्र पहनाने की रस्म यही है
ये अध्याय समाप्त हुआ अगला जीवन अध्याय शुरू होता है 

ॐ प्रणाम 

© लता  
१२: ४० दोपहर 
७ / ५ / २०१८ 

Friday 27 April 2018

फाल्गुन से वे सात रंग




हम रंग छुड़ाते ही रहे 
रंग घेरते, रंगते ही रहे 
ठान ली थी हमने अब 


दूध दूध ओ पानी पानी 
अलग अलग हो रहेगा 
देवदानव के सोपान में


श्यामल या के श्वेत रंग 
कड़ी के अंतिम रंग थे 
सोचा! युति असंभव हैं 
हाकिम एकही देह का

ठाना था ! स्व-भाव की 
गहराई से तराश हीरा 
खोज, बाहर ले आएंगे 


हम कोशिश करते रहे 
सातों रंग हमें घेरते रहे 


चित्रकार का ब्रश, हम 
नितनए रंग में रंगते रहे
आजभी समझसे ये परे 
मूल मेंश्वेत! या श्याम हैं

या सब रंग की उपज हैं 
जो रंग चाहे हावी हो ले 
औ हम बेबस लाचार हैं 


फाल्गुन वे संग खेल रहे 
हम थे खुद से बचते रहे 


सोचते ही थे गुमसुम के
बयार कहाँ से बह चली 
खिले पराग से सुर्ख रंग
  खुशबु... फैलाते...

        झर गए ...

कहो प्रिय ! इसमें से तुम्हे क्या दे दूँ



कथा कुछ भी हो, ये पटकथा मेरी है 
दवात-स्याही लेख-लेखनी ये ऊँगली 
Any type of Story but script is mine 
Bottle-Ink writeup-pen these fingers

जिंदगी कैसी भी है, सुनिश्चित मेरी है 
मिलते परिणाम जो हैं सब मेरे ही हैं 
however life it is , sure it is mine
whatever results are only mine

प्रेम की फलती फूलती पौध, मेरी है 
जन्म मेरा मृत्यु मेरी साँसें मेरी ही है 
the tender plant of love is mine
birth mine death mine breaths are mine

कहो प्रिय! इसमें से तुम्हे क्या दे दूँ 
तुम मुझे वो दे दो, जो भी तुम्हारा है
Tell me, Dear, what I can give you from these
and you may give me whatever is yours

Monday 26 March 2018

स्त्री-पुरु







स्त्री; नाम पर्याय है बंधन का 
स्त्री, स्वयं के लिए भी बंध है 
आकर्षण भाव देह बंध है यहाँ पुरु अचेतन स्त्री निःसहय है


पुरु न बंधता न बांधता, स्त्री!
स्वतंत्रता उस्के मूलगुण में है 
चूंके मामला प्रकर्ति पे रुका, दो सुजान चेतन बेबस हुए हैं


कुंडली मारे जो इक्छाओं पे 
अड़चन बीजरूप वहीँ बैठी 
पुरुष अंसख्यगामी संभव है स्त्री धुरी का दूसरा पर्याय है


पुरुष बेहतर कहूं के उलझी-
मकड़ी अपने जाल में फंसी
भटक चाहे कितने जाल बुने नवजाल नवाग्रह बंधक हुआ


इक स्त्री देह इक पुरुष देह 
स्त्री-ह्रदय इक पुरुषह्रदय है 
इक प्रेम में बंध के मुक्त हुई इक प्रेमबंधमुक्त ही मुक्त है


पूर्णस्त्रीसंग्राम स्त्री धुरी में है 
पुरु का जग्रतपुरु विपरीत है
यशो कैसे रोक सकेगी उसे जो सम्मोहनचक्र से पार हुआ


ये माया चक्र जो भेद सका 
वो पार हुआ माया जगत से 
पर आकर्षण मोहनी बने है, सोचने ही कहाँ देते है तुझे?


भावप्रेम मोहकर्म बंध ही है 
सं+बंध गृहबंध केंद्र सबका 
कर्म कर्त्तव्य भोग जान मान नवज्ञानी एकबंध में तुष्ट हुआ


योग नहीं, सन्यास नहीं अब 
राग न कोई, द्वेष ही है अब 
इस जन्म में उत्तमज्ञानी पुरु मक्कड़जाल से ही मुक्त हुआ


© Lata-27/03/2018-08:05am




Note: बात सही या गलत नहीं , वो नैतिकता है , क्या होना चाहिए ये सामाजिकता है पर नैसर्गिक धारा अपने गुणों को लिए संग बहती रहती है , ये प्राकतिक सामंजस्य है , जो कहता है नैतिकता और सामाजिकता के बीच मेरा अस्तित्व गहरा है , मैं मूल गुणधर्म हूँ। 

अपनी आज की दृष्टि से और आज की समझ से परखेंगे तो अलग ही दृश्य आएगा  जो अस्पष्ट और धुंधला भी है।  कुछ भी प्रकर्ति में समझना और जानना तो जरुरी है  अपनी दृष्टि का विकास। 

जगत में देह के 
बंटवारे के साथ ही एक पुरुष एक स्त्री में भाव में भी बंटा हुआ हूँ। ये कहता है मैं सभी सम्बन्ध से ऊपर हूँ क्यूंकि मैं मौलिक हूँ , किन्तु मैं मौलिक हूँ शुद्ध हूँ इसलिए सर्वव्यापी हूँ सभी देह में भौतिक देह से अलग मेरा वर्चस्व है , मेरा प्रभाव है। 

अनुपात में ; मानव के व्यव्हार में प्रकट हूँ , प्राकट्य में देह से न मैं स्त्री हूँ न पुरुष, सिर्फ स्त्री या पुरुष भाव हूँ। इसलिए देह से परे हूँ। फिर भी देहबन्ध हूँ।

बस अंतर् इतना ही है बन्धमुक्त-मुक्त पुरुष-भाव है जो प्रकर्ति से देह से इसका कोई सम्बन्ध नहीं और बन्धयुक्त-मुक्त भाव स्त्री का। अलग अलग देह में अलग अलग तरीके से प्रकट।

ध्यान देने वाली बात है,  की सम्बन्ध हमारे है , नैतिकता हमारी है , सामाजिकता हमारी है , और कॉकटेल  भी हमारी ही  बनायीं है , इसलिए कुछ नियम हरेक के लिए है ही।  यहाँ सम्बन्ध कोई भी , सामाजिकता कोई भी हो कहीं की हो ( विश्व या ब्रह्माण्ड , चर या अचर ), जो बने बनाये नियम से मुक्त है वो है एपुरुष भाव और एक स्त्री भाव , अब जो जानते है वो सहज आत्मसात करते है , वर्ना संघर्ष करते है। 
इसलिए किसी भी सम्बन्ध में पुरुष भाव स्वतंत्रता ही चाहता है और स्त्री भाव बंधन में संतुष्ट । ( किसी भी देह का स्वामी कोई भी हो सकता है ) मजे की बात ये इनमे भी अनुपात है अब प्रकृति एक जैसी दिखे पर है नहीं।

Saturday 24 March 2018

Listen, Dear Emmy !



Golden Door

Listen, Dear...

Feeling exhausted! Oh!
Find dead relation inside
Unable to emerge into
A good friend or loved one
Whatever reason may
Don't lose patience
Just stop and wait for
The door is opening
Trust ! this is just for you
Don't look back
Where is dark behind
And all closed door
Agreed with you
You've got a strong rope of attachment
Don't lose it, treasure absolutely yours
Look the shine of new gate
Enter the gate and find
New Ornaments
New Dress
New Air
New Garden
And All new Relations
Those ready to welcome you
Its Reality of this moment, accept it
Don't tag yourself in past or future hopes
Leave past, live in today, future is your's
Keep loose, probably keep an open fist
Don't tag even in the present
Moments are like a river, are in flow
They are not bound even with time !!
Trust !! you will be the happiest person



with love and prayers
💖💗💝💕
poetry penned 24/13/2018
at 19:39pm © Lata

Note : everyone knows poets are very sensitive and in poets, few cannot control wisely over self apart of strong expressions .. on a poetry side I was reading a poem by someone, and thought comes .. may anyone like 

Not Idea which thought serve to whom...

Wednesday 21 March 2018

कल्ल, तेरा रब तुझको माफ़ करेगा...





घर आये, तो पायदान पे पैर रगड़ के
बाहर की धूल को बाहर ही रख दिए
महकते बेला के गमले में जल दे कर
गले में ठंडा जल घूँट भर उतार लिए
ग़िलास ! उसकी जगह पे पलट दिये
बेतरतीब सामां, सलीके से रख दिए

गर्म चाय ले के इज़ीचेयर पे बैठ गए
जहाँ बैठे थे थोड़ा हाथ से झाड़ लिए
जूठी प्लेट संग चाय पीकर कप को
नाबदान में, जळ किञ्च के रख दिए
हम खड्डेकीचड़ से बच निकल लिए
राह की तूतू-मैंमैं तो चुप टहल लिए

ख्याल महज के, तबियत दुरुस्त रहे
फल सब्जी भी खरीदी देख-भाल के
पकाई करीने से, परोसी भी प्यार से
प्रेम से खा पीके हाथों को धो पोंछके
बिस्तर पहले से हीआदतन साफ़ था
ढीले लिबास में बैठ पैर को झाड़ के

प्रभु को नमन आज का आभार देके
ख़ुशी से, रोज के जैसे सोने चले गए
दस्तावेज गुम हो गये तब से मौज है
जो है सो है ही जो नहीं है वो नहीं है
सुंनना, ये किसी फ़क़ीर की दुआ है-
बस आज सबको माफ़ कर सुतजा
कल्ल,तेरा रब तुझको माफ़ करेगा...
© LATA
21/03/1018
10:30PM

Tuesday 6 March 2018

भूः


सौंदर्यलहरी अनुपम छवि निराली है
सुगंध स्निग्ध प्राण तरल गरलधारी हैं
दूर से लावण्यि नर्तकी थिरकती ज्यूँ
जाना तुझे छद्मी मोहिनी अतिक्रूर है

मातृरुपा, गर्भधारिणी, प्राणदायनी है
योगिनी मायारूपणी शक्तिस्वामिनी
प्रेमबीज रोपती सींचती रक्तओज से
प्राणरस फल बीज पुनरावृत्ती पूर्ण है


जीवन गीत पे थिरकती अभिसारणी
ताल देती लय पे अभिनेत्री भरपूर है
भाव देती सुगंधसम, देह पुष्परूप है
प्राण देव वृक्ष जड़ें बोध प्रिय भोज है

Lata 
06/03/2018
18:44 pm

Sunday 4 March 2018

रे चेतन !



दिल तो सरोवर है,सच में!
भरना ही भरना जानता है
कभी पंकपुष्प से भर उठे
कभी दवानल जल उठे है


रे चेतन! तनिक ध्यान धर
मानसहंस इसमें तिरता है
मोती मोती ये चुग पाता है
व्यर्थ इसे न कुछ पचता है

© lata, 03/03/2018, 07:57am
Black Swan/White Swan - nfs, original painting by artist Johanna ...

चले आओ




अंजानी राह के जलते दीप ये ही कहते है
इक इक कदम डालते आओ, चले आओ

स्याह रात में राह के दमकते हीरे कहते है
न सोचो विचारो मुझे ही बीनते, चले आओ

टिमटिमाती उम्मीदों की रौशनी रौशन रहे
साँसों का उत्सव मे, हँसते-गाते चले आओ

©lata 
2/03/2018
10:21am

पर्व मुझमें बस गए



नाचते शोर करते, उड़ाते रंग,संवर दीपमाला जलाते 
सभी त्योहारों को लड़कपन में जो रंग रौशनी दी थी
Dancing Noisy flying colours, dressed ignite candles
All those Festivals serves colours n light In childhood

सारे एक एक करके रंगरौशनी मुझे वापिस कर गए 
तबसे ये पर्व बाहर नहीं मिलते जबसे मुझमें बस गए
Together one by one return back to me colours n light
From than these festivals not seen out, all dwell in me 

💖

वो खेलमेल वो संगीसाथी ढूंढे से न मिले हैरान न हो 
जीते मुझमे दिखते थे, दरसल उधार मुझी से लेते थे 
Those play/meetings, those friends not find, don't get amazed
All appeared in life with me, actually, they took debt from me 

उस वख्त लिया कर्ज जिनने भी, सभी अदा कर गए 
तबसे वे बाहर नहीं मिलते जबसे मुझमे आ बस गए
That time all those taken debt, all paid fully later,As result.
All those settles reside in me, if not find in the outer world

💝

वो कहने की, बोलने की कोशिश, हौसलों की जुगत 

प्रदर्शनयुक्त श्रम की तैयारी होती आशाओं पे आशा
Those efforts to say, made an effort of talks, an effort to courage
The labour to exhibitions and preparations, hope-list upon hopes

इनके सँग-सँग चलता संज्ञान मौन श्रोता कर्ता भी था 
उसने कहा - अन्यत्र नहीं वे, सब तुझी में आ बस गए
A wisdom walk-around silently was a listener motivator too 
He said- those never go anywhere, all dwell inside you only.

💝

पहचान हुई तब खुद से  जब मुझसे मेरी मुलाकात हुई 
नृत्य थिरकता, था संगीत उभरता, उत्सव भी होते दिखे 
Got Introduction yourself, the day I meet to myself 
Tap dance, emerging rhythmic music, seen festivals

जलती दीप-लड़ी शुद्ध तेल प्राणित, सात रंग उड़ते मिले 
उत्सवयुक्त आनंद-पल, खुशियाँ बन मुझमे आ बस गए  
Candle in the pure life-oil; Ignited, 7 colour flew inside
Festive joyous moments being jollify resides inside me 




© Lata 
04 / 03 / 2018 
10:40 am

note: pl excuse in translation mistake if any! 

Tuesday 20 February 2018

शुद्धता का आयोजन सरल सा किन्तु क्लिष्ट



स्वभाव से आग उर्ध्वगामी, ऊपर को ही चढ़ेगी
संपर्क में आई हवा के कण भी राख बन झड़ेंगे
तत्व से सना लावा, तत्व गलाता नीचे को बहेगा


अग्नि से धधकता लावा जब जल-तत्व पे गिरेगा
गर्जते घन बिच तड़कती चपलरेख प्रतीति देती
लावा संग ले उतरी हो लावण्यी अग्निबाला जैसे 


भूमि-गर्भ से तप्त निकले सुर्ख-ज्वाला लिए हुए 
न थमता , सर्प सा मार्ग खोजता, बह निकलता   
भावहीन हुआ स्वाहा करेगा जो मार्ग में आयेगा


स्वर्ग से हरहाराति गंगे शिव-जटा में शांत होती 
दुग्ध धार बन निकली, भू सींचती कल्याणी हुई 
तरल धातुमल यूँ निधिकोष बना सिंधु प्रांगण में 

अब आगे का काव्य मर्म  सुनिए ; ऐसा लगता है  मानो कुशल नृतक अपनी सर्वाधिक कौशल से भरी  प्रस्तुती  मंच पे दे रहा हो  और दर्शक दीर्घा से  उठती तालियों की गड़गड़ाहट थमने का नाम न ले रही हो , गर्भ चीर  के सागर की और बहता धातुमल  ऐसे  ही नर्तन करता  जाता और  बहते लावे से  पर्यावरण में ऋतू परिवर्तन  भी हैं , ऐसे उमड़ते शोर करते काले मेघ  बिजली की कड़क प्रतीति देती  मानो सागर से अपने में समां लेने  का अनुग्रह है  ताकि जलनिधि  इस धातु-निधि को  अपने में  गर्भ में रक्खे  , साथ ही  अपने तेज  के सहयोग से  जलनिधि से आग्रह  कुछ उच्च कोटि की जलबूंदो को  वाष्प को समर्पित करने के लिए , और सागर  अग्नि  के अनुगृह  पे  ये प्रार्थना स्वीकार करता है  ,  अपार जल से  चुनी हुई  सुपात्र  जल कण  को भाप बनने के लिए  आज्ञा देता है ,उल्लेखनीय है की - ....ये  जलकण  भव -सागर  में  रहते  हुए  अपनी  सुपात्रता   सुनिश्चित   करते है  -


घुमड़ते श्याम मेघगर्जन अनुग्रह का भास् देती  
अग्नि के आग्रह पे, गरु जलनिध विचार करता
अथाह जल में से चुटकी जल को आज्ञा दे देता 


छन्न-धुन से फिर ऊपर को उठता वाष्प-गुबार
ये भाप अतिशुद्ध है किसी भी कलंक से दूर है
मूल तल से उठ, 
व्योम में विलीन होने योग्य है 

© Lata 
19/02/2018
11:07am


इति श्री


चलता पंखा, फ़ड़फ़ड़ पन्ने 
उसके प्रिय उपन्यास जैसी
उसकी आँख खोईअर्धनम 
गहरी खोज में उपलब्धि में
अर्धखुली और अर्धमूँदी भी

'मोती' थे, सत्तर की उम्र के
गत पचास में चालीस स्पष्ट
खोय क्या क्या पाए जग में
ख़्वाब सा था जो बीत गया
ख़्वाब ही तो है जो आएगा
पिछला गया,असमंजस में
अगला भी यूँह बह जायेगा
इस पल में खड़े, मुड़ देखा
क्यूँ कहे! न लोग हैं न साथ
समझ न आये महत सौंदर्य
रूपकलेवर छद्मी भीड़ का

व्यथित मन ने सहसा देखा
अतल थाह में हीरे की रेख
भविष्य में बहते समय-क्षण
इस क्षण-सम वे जर्जर न थे
अथक प्रयास अनेक स्थति
स्वयं से अपरिचित रहने से
न समझे जानेसे बस हैरां थे

चाहते देख लें बहाव उसका
जानें ! अनंत फ़ैलाव उसका
जान लें जैसा पीछे बह गया
वैसे ही आगे भी बह जायेगा
हाथ में; आज भी न आयेगा
सिवाय संतुष्टि चुटकी समझ
किन्तु असंतुष्टि से पूरित हम
देखे हताशा से भूत की ओर
भविष्य कम्पित उम्मीद साथ

जबके सबही थे उसके साथ
वैसे ही जैसे आज संग-साथ
आगे भी होंगे सभी ऐसे साथ
क्यूँ बेकलव्यथित मन भटके
पर्त दर पर्त मन-रहस्य खुले
वृक्ष केअनेक सूखे पत्ते झड़े
खुली झोळी में गिर थिर हुए

छत पे चलता पंखा, हवा से-
उड़ते फड़फड़ाते सभी पन्ने,
अर्धमूँदे..अर्द्धनम..अर्धखुले-
इतिश्री कहते प्रेम से बंद हुए

© Lata 
20/02/2018
10:14am

Tuesday 13 February 2018

सप्तद्वीप-सप्त पर्वत-नाविक की खोज-नाविक का जहाज



ज्यूँ ; सागर की असीम गहराई में लेटे पड़े हुए हैं
जलसमाधिस्त 
काई सने सप्तद्वीप के उभरे शीर्ष 
उभरे शीर्ष युक्त पर्वत, नीचे रहता सप्तद्वीप सार
इन कंदराओं पे घर किया जलचर जीवजंतुओं ने
जीवननिर्वहन को उन्हें सुरक्षित ठिकाने जो मिले

पर्वत शिखर जलीय हलचल के कारन स्पष्ट और 
गहराई के कारन सुरक्षित भी किन्तु इसी कारण
कहीं उत्तंग, हुआ धूमिल कहीं, कहीं पे अदृश् है


शब्द असमर्थ,पर्वत की इस गहराई को कहने में
अथाह सागर गहरा भी थिर भी हिलोरे लेता हुआ
ऊपर ऊपर गंभीर क्रीड़ामग्न लहरें दिखीं विशाल
लहरों पे तैरता डोलता रुक-रुक बहे इक जहाज

बिंदु छूने की कोशिश में है इक नाविक बारम्बार
किन्तु बिन छुए पार करता, दुबारा लौटने के लिए
ऐसा लगता मानो शिखरबिंदु-जहाज के मेल बीच
अवधान बना जीवनदायी जल, परिचित जीव जंतु
संग-संग, प्रबल अवरोध डालती युग से पड़ी काई

सहायक भी हैं बाधक भी भ्रम देते सहबन्धु बांधव 
बेडा किसी का बिंदु स्पर्श कर पार हो आगे बढ़ता
कभी कोई तो शीर्ष से छूते, रसातल में समा जाता
ॐ मैं, मेरा योगबल प्रबल,समक्ष प्रबल अवरोध थे 
शक्तिहीन न कोई ,अद्भुत देव-शक्ति सम्पन सब  
सभी शक्तिवान सभी ओजवान, सभी स्रोत से जुड़े
जल का कण तरंग लिए या नाविक आत्मसंग लिए

था नाविक का जहाज तिरता चंचल लहरों के ऊपर
नीचे सागर का अथाह गहरा जल हिलोरें लेता हुआ
ऐसे जल के नीचे काई से सने सप्तबिंदु पर्वतशिखर
इनके नीचे छिपे अदृश् सप्तद्वीप,है खोज में नाविक 

© Lata 
On precious day of Mahashivratri  dedicated to all meditative and wise yogi friends 
14/02/2018