Sunday 10 February 2019

काला

सोचती हूँ काला सातरंग की ही विधा है उसका ये छोर सफ़ेद वो काला, बात है! समझ आया जब स्वीपर ने नाली खोली बहुत बदबू थी, कचरा भी काला-काला सफाई में निकलते काला बदबूदार ढेर गटर की सफाई तो हम सभी जानते हैं जिस्म का लाल-रक्त सूख काला-काला कालीदेह शिवभस्म से लिपट स्लेटी हुई पर जिनके रक्त के कण लाल नहीं, वो! क्या कहूं ! ये बात भी तो बस काले की धरती से बंध बैठे मूरख उनकी कहानी बंधे इशारे न देखे, वो बंदगी को मानता शातिर हैं जो श्वेत को कसके पकड़ बैठा काला संग लिए गोरी चमड़ी में छुप बैठा ऐसे कस के पकडे श्वेत श्यामा-गुण गाये नासमझ सयाने को बोलो कौन समझाए यूँ तो ! सातों रंग सफ़ेद में भी भरे हुए हैं काले पे दिखे नहीं पर श्वेत में चमकते हैं यूँ तो नहीं कहते- कान्हा का रंग काला गहन मन काला तब ही वर्षा-मेघ काला ऐसे घोर काले घन तबाही देते जीवन थे ऐसे सृजन को विष्णु कहा भगवत कहा योग के घोर ज्ञान के जन्मे पल काले में ज्ञान दर्शन महा ज्ञानी ने काले में किया गहरी रात में मुआ गहरा आस्मां काला खाटू श्याम काला और शिव् ॐ काला काले आस्मा पे चाँदसितारे देख समझ काले खाटू की देह में हीरे चमका दिए और शिव ॐ तो आकाशगंगा को लिए और तो और मन पे भी सफ़ेद रंग सजा दिन का रवि श्वेत प्रचंड जब चमका तो घोर काला शून्याकाश नीलानीला हुआ लो इत्ते में समझ बोली-रंगो में भी भेद! सातों रंग उसके तो है किसेअलग करें बुद्धि बोली-भेद नहीं, इसे विवेक कहो काले की भूमि निर्मल-अक्ष;जानते रहो रात की स्याही में सैकड़ों तरंगे काली दिन के कागज पे इक दाग भी चमके छिपे काले पे सात रंग श्वेतपन्ने पे दिखे छिपना जिस्पे उन्का नामुमकिन हुआ