Tuesday 30 August 2016

यूँ भी किया कीजे !

यूँ भी किया कीजे !
Try this way also

खिलेंगे वे खुशबु से देस महका देंगे 
कोयल कुहुक से मयूर नाच उठेगा 
पहले पौध की जमीं तो तैयार कीजे !

( Sure they bloom serve fragrance  to surroundings 
peacock  will dance  to listen cuckoo sweet sound
before ; make a land ready to fertile well, for a plant )

नसीब से खिले,मिले,महकते भी है
दिल के घर-आंगन में, नाजुक उन 
फूलों की महक को संभाला कीजे !

( By grace they  bloom , meet , and fragrant  also 
in mid of house of heart-courtyard, take care
that delicate tender  fragrance of flowers )

नाभिदेश में आसन लगा,हृदयमध्य 
दिया जला , अपलक लौ को निहारें
अपनी ज़मी वास्ते यूँ भी किया कीजे !

( Ssit with center of body on naval zone , mid of heart 
lit a light , observe  that flame  without blink lashes 
do something  correct this way for your body land )

हीरा जगमगाता आपके ही पास तो 
गाहेबगाहे धूल को भी झाड़ पोंछ के 
चमक से रौशन अपना मक़ान कीजे !

( This is with you only , that   brighten glittery diamond 
meanwhile  do clean dust  via  mopping frequent ,and 
from the shine of crystal  make your home  brighter



Copyright of LataTewari
29-08-2016

Monday 29 August 2016

महत्त्व शब्दों का नहीं महत्व भावना का है जो शब्दों में गूंजती है (मीरदाद के गीत)


अध्याय 23 
महत्त्व शब्दों का नहीं महत्व भावना का है जो शब्दों में गूंजती है
" मीरदाद सिम-सिम को ठीक करता हैऔर बुढापे के बारे में बताता है”
नरौन्दा: नौका की पशुशालाओं की सबसे बूढ़ी गाय सिम-सिम पांच दिन से बीमार थी और चारे या पानी को मुंह नहीं लगा रही थी। इस पर शमदाम ने कसाई को बुलवाया। उसका कहना था कि गाय को मारकर उसके मांस और खाल की बिक्री से लाभ उठाना अधिक समझदारी है, बनिस्बत इसके कि गाय को मरने दिया जाये और वह किसी काम न आये। जब मुर्शिद ने यह सुना तो गहरे सोच में डूब गये, और तेजी से सीधे पशुशाला की ओर चल पड़े तथा सिम-सिम के ठिकाने पर जा पहुंचे उनके पीछे सातों साथी भी वहां पहुँच गये।सिम-सिम उदास और हिलने-डुलने असमर्थ-सी थी।उसका सर नीचे लटका हुआ था, आँखें अधमुँदी थीं, शरीर के बाल सख्त और कान्ति-हीन थे। किसी ढीठ मक्खी को उड़ाने के लिये वह कभी–कभी अपने कान को थोड़ा सा हिला देती थी। उसका विशाल दुग्ध-कोष उसकी टांगों के बीच ढीला और खाली लटक रहा था, क्योंकि वह अपने लम्बे तथा फलपूर्ण जीवन के अंतिम भाग में मातृत्व की मधुर वेदना से वंचित हो गई थी। उसके कूल्हों की हड्डियाँ उदास और असहाय, कब्र के दो पत्थरों की तरह बाहर निकली हुई थीं। उसकी पसलियाँ और रीढ़ की हड्डियाँ आसानी से गिनी जा सकती थीं। उसकी लम्बी और पतली पूंछ सिरे पर बालों का भारी गुच्छा लिये अकड़ी हुई सीधी लटक रही  थी। मुर्शिद बीमार पशु के निकट गये और उसे आँखों तथा सींगों के बीच और ठोड़ी के नीचे सहलाने लगे।कभी-कभी वे उसकी पीठ और पेट पर हाथ फेरते। पूरा समय वे उससे इस प्रकार बातें करते रहे जैसे किसी मनुष्य के साथ बातें कर रहे हों :
मीरदाद: तुम्हारी जुगाली कहाँ है,
मेरी उदार सिम-सिम?
इतना दिया है सिम-सिम ने कि 
अपने लिये थोड़ा-सा जुगाल रखना भी भूल गई। 
अभी और बहुत देना है सिम-सिम को।
उसका बर्फ-सा सफ़ेद दूध
आज तक हमारी रगों में गहरा लाल रंग लिये दौड़ रहा है।
उसके पुष्ट बछड़े हमारे खेतों में भारी हल खींच रहे है
और अनेक भूखे जीवों को भोजन देने में हमारी सहायता कर रहे हैं।
उसकी सुंदर बछियाँ अपने बच्चों से हमारी चारागाहों को भर रही हैं।
उसका गोबर भी हमारे बाग़  की रस-भरी सब्जियों और फलोद्यान के
स्वादिष्ट फलों में हमारे भोजन की बरकत बना हुआ है।
हमारी घाटियाँ नेक सिम-सिम के
खुलकर रँभाने की ध्वनी और प्रतिध्वनि से
अभी तक गूँज रही हैं।
हमारे झरने उसके सौम्य तथा सुंदर मुख को
अभी तक प्रतिबिम्बित कर रहे हैं।
हमारी धरती की मिटटी
उसके खुरों की अमित छाप को
अभी तक सीने से लगाय हुए है
और सावधानी के साथ उसकी सँभाल कर रही है।
बहुत प्रसन्न होती है हमारी घास
सिम-सिम का भोजन बनकर
बहुत संतुष्ट होती है हमारी धूप
उसे सहला कर
बहुत आनंदित होता हमारा मन्द समीर
उसके कोमल और चमकीले रोम-रोम को छूकर।
बहुत आभार महसूस करता है मीरदाद उसे वृद्धावस्था के रेगिस्तान को पार करवाते हुए, उसे इन्ही सूर्यों तथा समीरों के देश में नयी चरागाहों का मार्ग दिखाते हुए। 

बहुत दिया है सिम-सिम ने,और बहुत लिया है;
लेकिन सिम-सिम को अभी
और भी देना और लेना है।
मिकास्तर: क्या सिम-सिम आपके शब्दों को समझ सकती है जो आप उससे ऐसे बातें कर रहे हैं मानो वह मनुष्य की-सी बुद्धि रखती हो?
मीरदाद: महत्व शब्द का नहीं होता, भले मिकास्तर। महत्व उस भावना का होता है जो शब्द के अंदर गूंजती है; और पशु भी उससे प्रभावित होते हैं।और फिर, मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि बेचारी सिम-सिम की आँखों में से एक स्त्री मेरी ओर देख रही है।
मिकास्तर: बूढी और दुर्बल सिम-सिम के साथ इस प्रकार बातें करने का क्या लाभ ? क्या आप आशा करते है कि इस प्रकार आप बुढापे के प्रकोप को रोककर सिम-सिम की आयु लम्बी कर देंगे ?
मीरदाद: एक दर्दनाक बोझ है बुढापा मनुष्य के लिये, और पशु के लिये भी। मनुष्य ने अपनी उपेक्षापूर्ण निर्दयता से इसे और भी दर्दनाक बना दिया है। एक नवजात शिशु पे वे अपना अधिक से अधिक ध्यान और प्यार लुटाते हैं।
परन्तु बुढापे के बोझ से दबे मनुष्य के लिये वे अपने ध्यान से अधिक अपनी उदासीनता, और अपनी सहानुभूति से अधिक अपनी उपेक्षा बचाकर रखते हैं। जितने अधीर वे किसी दूधमुंहे बच्चे को जवान होता देखने के लिये होते हैं, उतने ही अधीर होते हैं वे किसी वृद्ध मनुष्य को कब्र का ग्रास बनता देखने के लिये।
बच्चे और बूढ़े दोनों ही सामान रूप से असहाय होते हैं किन्तु बच्चों की बेबसी बरबस सबकी प्रेम और त्याग से पूर्ण सहायता प्राप्त कर लेती है;
जब कि बूढों की बेबसी किसी किसी की ही अनिच्छा पूर्वक दी गई सहायता को पाने में सफल होती है। वास्तव में बच्चों की तुलना में बूढ़े सहानुभूति के अधिक अधिकारी होते हैं। जब शब्दों को उस कान में प्रवेश पाने के लिये जो कभी हलकी से हलकी फुसफुसाहट के प्रति भी संवेदनशील और सजग था, देर तक और जोर से खटखटाना पड़ता है ;
जब आँखें, जो कभी निर्मल थीं, विचित्र धब्बों और छायाओं के लिये नृत्य मंच बन जाती हैं ;जब पैर, जिनमें कभी पंख लगे हुये थे, शीशे के ढेले बन जाते हैं ;और हाथ जो जीवन को साँचे में ढालते थे, टूटे साँचों में बदल जाते हैं ; जब घुटनों के जोड़ ढीले पड़ जाते हैं, और सिर गर्दन पर रखी एक कठपुतली बन जाता है ; जब चक्की के पाट घिस जाते हैं, और स्वयं चक्की-घर सुनसान गुफा हो जाता है ;जब उठने का अर्थ होता है गिर जाने के भय से पसीने-पसीने होना, और बैठने का अर्थ होता है इस दुःखदायी संदेह के साथ बैठना कि शायद फिर कभी उठा ही न जा सके ; जब खाने-पीने का अर्थ होता है खाने-पीने के परिणाम से डरना, और न खाने-पीने का अर्थ होता है घ्रणित मृत्यु का दबे-पाँव चले आना ; हाँ जब बुढ़ापा मनुष्य को दबोच लेता है, तब समय होता है, मेरे साथियो, उसे कान और नेत्र प्रदान करने का, उसे हाथ और पैर देने का, उसकी क्षीण हो रही शक्ति को अपने प्यार के द्वारा पुष्ट करने का, ताकि उसे महसूस हो कि अपने खिलते बचपन और यौवन में वह जीवन को जितना प्यारा था, इस ढलती आयु में उससे रत्ती भर भी कम प्यारा नहीं है।
अस्सी वर्ष ... अनन्तकाल में चाहे एक पल से कम हों; किन्तु वह मनुष्य जिसने अस्सी वर्षों तक अपने आप को बोया हो, एक पल से कहीं अधिक होता है। वह अनाज होता है उन सब के लिये जो उसके जीवन की फसल काटते हैं। और वह कौन-सा जीवन है जिसकी फसल सब नहीं काटते हैं ? क्या तुम इस क्षण भी उस प्रत्येक स्त्री और पुरुष के जीवन की फसल नहीं काट रहे हो जो कभी इस धरती पर चले थे ? तुम्हारी बोली उनकी बोली की फसल के सिवाय और क्या है ?
तुम्हारे विचार उनके विचारों के बीने गये दानों के सिवाय और क्या हैं ? तुम्हारे वस्त्र और मकान तक, तुम्हारा भोजन, तुम्हारे उपकरण,तुम्हारे क़ानून, तुम्हारी परम्पराएँ और तुम्हारी परिपाटियाँ—ये क्या उन्हीं लोगों के वस्त्र, मकान, भोजन, उपकरण, क़ानून, परम्पराएँ और परिपाटियाँ नहीं हैं जो तुमसे पहले यहाँ आ चुके हैं और यहाँ से जा चुके हैं।एक समय में तुम एक ही चीज की फसल नहीं काटते हो, बल्कि सब चीजों की फसल काटते हो, और हर समय काटते हो।
तुम ही बोने वाले हो, तुम ही फसल हो, तुम ही लुटेरे हो, तुम ही खेत हो और खलिहान भी। यदि तुम्हारी फसल खराब है तो उस बीज की ओर देखो जो तुमने दूसरों के अंदर बोया है, और उस बीज की ओर भी जो तुमने उन्हें अपने अंदर बोने दिया है। लुनेरे और उसकी दराँती की ओर भी देखो, और खेत और खलिहान की ओर भी।
एक वृद्ध मनुष्य जिसके जीवन की फसल तुमने काटकर अपने कोठारों में भर ली है, निश्चय ही तुम्हारी अधिकतम देख-रेख का अधिकारी है। यदि तुम उसके उन वर्षों में जो अभी काटने के लिए बची वस्तुओं से भरपूर है, अपनी उदासीनता से कड़वाहट घोल दोगे, तो जो कुछ तुमने उससे बटोर कर संभल लिया है,
और जो कुछ तुम्हें अभी बटोरना है, वह सब निश्चय ही तुम्हारे मुंह को कड़वाहट से भर देगा। अपनी शक्ति खो रहे पशु की उपेक्षा करके भी तुम्हे ऐसी ही कड़वाहट का अनुभव होगा। यह उचित नहीं कि फसल से लाभ उठा लिया जाये, और फिर बीज बोने वाले और खेत को कोसा जाये। हर जाति तथा हर देश के लोगों के प्रति दयावान बनो, मेरे साथियो। वे प्रभु की ओर तुम्हारी यात्रा में तुम्हारा पाथेय हैं। 
परन्तु मनुष्य के बुढ़ापे में उसके प्रति विशेष रूप से दयावान बनो; कहीं ऐसा न हो कि निर्दयता के कारण तुम्हारा पाथेय खराब हो जाये और तुम अपनी मंजिल पर कभी पहुँच ही न सको। हर प्रकार के और हर उम्र के पशुओं के प्रति दयावान बनो; यात्रा की लम्बी और कठिन तैयारियों में वे तुम्हारे गूँगे किन्तु बहुत वफादार सहायक हैं।
परन्तु पशुओं के बुढ़ापे में उनके प्रति विशेष रूप से दयावान रहो; ऐसा न हो तुम्हारे ह्रदय की कठोरता के कारण उनकी वफादारी बेवफाई में बदल जाये और उनसे मिलने वाली सहायता बाधा बन जाये।
सिम-सिम के दूध पर पलना
और जब उसके पास देने को
और न रहे तो उसकी गर्दन
पर कसाई की छुरी रख
देना चरम कृतध्नता है।
अध्याय - २४ 
दूसरे की पीड़ा पर जीना , पीड़ा का शिकार होना है
जब शमदाम और कसाई चले गए तो मिकेयन ने मुर्शिद से पूछा: मिकेयन: खाने के लिये मारना क्या उचित नहीं है मुर्शिद ?
मीरदाद: मृत्यु से पेट भरना मृत्यु का आहार बनना है। दूसरों की पीड़ा पर जीना पीड़ा का शिकार होना है। यही आदेश है प्रभु-इच्छा का यह समझ लो और फिर अपना मार्ग चुनो, मिकेयन।
मिकेयन: यदि मैं चुन सकता तो अमर पक्षी की तरह वस्तुओं की सुगंध पर जीना पसंद करता, उसके मांस पर नहीं।
मीरदाद: तुम्हारी पसंद सचमुच उत्तम है। विश्वास करो, मिकेयन, वह दिन आ रहा है जब मनुष्य वस्तुओं की सुगंध पर जियेंगे जो उनकी आत्मा है, उनके अक्त मांस पर नहीं।
और तड़पने वाले के लिये वह दिन दूर नहीं। क्योंकि तड़पने वाले जानते हैं कि देह का जीवन और कुछ नहीं, देह-रहित जीवन तक पहुँचने वाला पुल-मात्र है। और तड़पने वाले जानते हैं कि स्थूल और अक्षम इन्द्रियाँ अत्यंत सूक्ष्म तथा पूर्ण ज्ञान के संसार के अंदर झाँकने के लिये झरोखे-मात्र हैं।
और तड़पने वाले जानते हैं कि जिस भी मांस को वे काटते है, उसे देर-सवेर, अनिवार्य रूप से, उन्हें अपने ही मांस से जोड़ना पडेगा;
और जिस भी हड्डी को वे कुचलते हैं, उसे उन्हें अपनी ही हड्डी से फिर बनाना पडेगा; और रक्त की जो बूंद वे गिराते हैं, उसकी पूर्ति उन्हें अपने ही रक्त से करनी पड़ेगी। क्योंकि शरीर का यही नियम है। पर तड़पने वाले इस नियम की दासता से मुक्त होना चाहते हैं।
इसलिये वे अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को कम से कम कर लेते हैं और इस प्रकार कम कर लेते हैं शरीर के प्रति अपने ऋण को जो वास्तव में पीड़ा और मृत्यु के प्रति ऋण है।तड़पने वाले पर रोक केवल उसकी अपनी इच्छा और तड़प की होती है,
जबकि न तड़पने वाला दूसरों द्वारा रोके जाने की प्रतीक्षा करता है अनेक वस्तुओं को, जिन्हें न तड़पने वाला उचित समझता है तड़पने वाला अपने लिये अनुचित मानता है। न तड़पने वाला अपने पेट या जेब में डालकर रखने के लिये अधिक से अधिक चीजें हथियाने का प्रयत्न करता है, जबकि तदपने वाला जब अपने मार्ग पर चलता है तो न उसकी जेब होती है और न ही उसके पेट में किसी जीव के रक्त और पीड़ा-भरी एंठ्नों की गंदगी।
न तड़पने वाला जो ख़ुशी किसी पदार्थ को बड़ी मात्रा में पाने से करता है–या समझता है कि वह प्राप्त करता है—तड़पने वाला उसे आत्मा के हलकेपन और दिव्य ज्ञान की मधुरता में प्राप्त करता है। एक हरे-भरे खेत को देख रहे दो व्यक्तियों में से एक उसकी उपज का अनुमान मन और सेर में लगाता है और उसका मूल्य सोने-चांदी में आँकता है।
दूसरा अपने नेत्रों से खेत की हरियाली का आनंद लेता है, अपने विचारों से हर पत्ती को चूमता है, और अपनी आत्मा में हर छोटी से छोटी जड़,हर कंकड़ और मिटटी के हर ढेले के प्रति भ्रातृभाव स्थापित कर लेता है। मैं तुमसे कहता हूँ, दुसरा व्यक्ति उस खेत का असली मालिक है, भले ही क़ानून की दृष्टी से पहला व्यक्ति उसका मालिक हो।एक मकान में बैठे दो व्यक्तियों में से एक उसका मालिक है,
दूसरा केवल एक अतिथि। मालिक निर्माण तथा देख-रेख के खर्च की, और पर्दों,गलीचों तथा अन्य साज-सामग्री के मूल्य की विस्तार के साथ चर्चा करता है। जबकि अतिथि मन ही मन नमन करता है उन हाथों को जिन्होंने खोदकर खदान में से पत्थरों को निकाला, उनको तराशा और उनसे निर्माण किया; उन हाथों को जिन्होंने गलीचों तथा पर्दों को बुना;
और उन हाथों को जिन्होंने जंगलों में जाकर उन्हें खिडकियों और दरवाजों का,कुर्सियों और मेजों का रूप दे दिया। इन वस्तुओं को अस्तित्व में लानेवाले निर्माण-कर्ता हाथ की प्रशंसा करने में उसकी आत्मा का उत्थान होता है। मैं तुमसे कहता हूँ, वह अतिथि उस घर का स्थायी निवासी है;
जब कि वह जिसके नाम वह मकान है केवल एक भारवाहक पशु है जो मकान को पीठ पर ढोता है, उसमे रहता नहीं। दो व्यक्तियों में से,जो किसी बछड़े के साथ उसकी माँ के दूध के सहभागी हैं, एक बछड़े को इस भावना के साथ देखता है कि बछड़े का कोमल शरीर उसके आगामी जन्म-दिवस पर उसके तथा उसके मित्रों की दावत के लिये उन्हें बढ़िया मांस प्रदान करेगा।
दूसरा बछड़े को अपना धाय-जाया भाई समझता है और उसके ह्रदय में उस नन्हे पशु तथा उसकी माँ के प्रति स्नेह उमड़ता है। मैं तुमसे कहता हूँ, उस बछड़े के मांस से दूसरे व्यक्ति का सचमुच पोषण होता है; जबकि पहले के लिये वह विष बन जाता है। हाँ बहुत सी ऐसी चीजें पेट में दाल ली जाती हैं जिन्हें ह्रदय में रखना चाहिये।
बहुत सी ऐसी चीजें जेब और कोठारों में बन्द कर दी जाती हैं जिनका आनंद आँख और नाक के द्वारा लेना चाहिये। बहुत सी ऐसी चीजें दांतों द्वारा चबाई जाती हैं जिनका स्वाद बुद्धि द्वारा लेना चाहिये।जीवित रहने के लिये शरीर की आवश्यकता बहुत कम है। तुन उसे जितना कम दोगे, बदले में वह तुम्हे उता ही अधिक देगा; जितना अधिक दोगे, बदले में उतना ही कम देगा।
वास्तव में तुम्हारे कोठार और पेट से बाहर रहकर चीजें तुम्हारा उससे अधिक पोषण करती हैं जितना कोठार और पेट के अन्दर जाकर करती हैं। परन्तु अभी तुम वस्तुओं की केवल सुगंध पर जीवित नहीं रह सकते, इसलिये धरती के उदार ह्रदय से अपनी जरुरत के अनुसार निःसंकोच लो,
लेकिन जरुरत से ज्यादा नहीं। धरती इतनी उदार और स्नेहपूर्ण है कि उसका दिल अपने बच्चों के लिये सदा खुला रहता है।
धरती इससे भिन्न हो भी कैसे सकती है ?
और अपने पोषण के लिये अपने आपसे बाहर जा भी कहाँ सकती है ? धरती का पोषण धरती को ही करना है, और धरती कोई कंजूस गृहणी नहीं, उसका भोजन तो सदा परोसा रहता है और सबके लिये पर्याप्त होता है। जिस प्रकार धरती तुम्हे भोजन पर आमंत्रित करती है और कोई भी चीज तुम्हारी पहुँच से बाहर नहीं रखती,
ठीक उसी प्रकार तुम भी धरती को भोजन पर आमंत्रित करो और अत्यंत प्यार के साथ तथा सच्चे दिल से उससे कहो;”मेरी अनुपम माँ !
जिस प्रकार तूने अपना ह्रदय मेरे सामने फैला रखा है ताकि जो कुछ मुझे चाहिये ले लूँ, उसी प्रकार मेरा ह्रदय तेरे सम्मुख प्रस्तुत है ताकि जो कुछ तुझे चाहिये ले ले।”
यदि धरती के ह्रदय से आहार प्राप्त करते हुए तुम्हे ऐसी भावना प्रेरित करती है, तो इस बात का कोई महत्व नहीं कि तुम क्या खाते हो।परन्तु यदि वास्तव में यह भावना तुम्हे प्रेरित करती है तो तुम्हारे अन्दर इतना विवेक और प्रेम होना चाहिये कि तुम धरती से उसके किसी बच्चे को न छीनो, विशेष रूप से उन बच्चों में से किसी को जो
जीने के आनंद और मरने की पीड़ा अनुभव करते हैं–जो द्वेत के खण्ड में पहुँच चुके हैं; क्योंकि उन्हें भी धीरे-धीरे और परिश्रम के साथ, एकता की ओर जानेवाले मार्ग पर चलना है। और उनका मार्ग तुम्हारे मार्ग से अधिक लंबा है। यदि तुम उनकी गति में बाधक बनते हो तो वे भी तुम्हारी गति में बाधक होंगे।
अबिमार; जब मृत्यु सभी जीवों की नियति है, चाहे वह एक कारण से हो या किसी दूसरे कारण से, तो किसी पशु की मृत्यु का कारण बनने में मुझे कोई नैतिक संकोच क्यों हो ?
मिरदाद: यह सच है कि सब जीवों का मरना निश्चित है, फिर भी धिक्कार है उसे जो किसी भी जीव की मृत्यु का कारण बनता है। जिस प्रकार यह जानते हुए कि मैं नरौन्दा से बहुत प्रेम करता हूँ और मेरे मन में कोई रक्त-पिपासा नहीं है, तुम मुझे उसे मारने का काम नहीं सौंपोगे, उसी प्रकार प्रभु-इच्छा किसी मनुष्य को किसी दूसरे मनुष्य या पशु को मारने का काम नहीं सौंपती, जब तक कि वह उस मौत के लिये साधन रूप में उसका उपयोग करना आवश्यक न समझती हो।
जब तक मनुष्य वैसे ही रहेंगे जैसे वे हैं, तब तक रहेंगे उनके बीच चोरियाँ और डाके, झूठ, युद्ध और हत्याएँ, तथा इस प्रकार के दूषित और पाप पूर्ण मनोवेग।लेकिन धिक्कार है चोर को और डाकू को, धिक्कार है झूठे को और युद्ध-प्रेमी को, तथा हत्यारे को और हर ऐसे मनुष्य को जो अपने ह्रदय में दूषित तथा पाप पूर्ण मनोवेगों को आश्रय देता है,
क्योकि अनिष्ट पूर्ण होने के कारण इन लोगों का उपयोग प्रभु-इच्छा अनिष्ट के संदेह-वाहकों के रूप में करती है।परन्तु तुम, मेरे साथियों,
अपने ह्रदय को हर दूषित
और पाप पूर्ण आवेग से
अवश्य मुक्त करो
ताकि प्रभु-इच्छा तुम्हे दुखी
संसार में सुखद सन्देश
पहुँचाने का अधिकारी
समझे–दुःख से मुक्ति का
सन्देश, आत्म-विजय का सन्देश,
प्रेम और ज्ञान द्वारा मिलने वाली
स्वतंत्रता का सन्देश।
यही शिक्षा थी मेरी नूह को।
यही शिक्षा है मेरी तुम्हे।

धन्यवाद 

Wednesday 24 August 2016

रे मन बता

रे मन बता
कैसे बहलाऊँ तुझे
कौन धुन पे तू झूमता
कौन गीत गा रिझाऊँ
रे मन बता
कौन रंग दिखलाऊँ
कौन सा चित्र बनाऊं
कौन से सच्चे रंग भरूँ
रे मन बता
कौन सी कथा सुनाऊँ
सच को कहती परियां
या सच में रहती दुनियां
रे मन बता
कौन व्यथा साँझा करूँ
के दिल धड़कना न भूले
सपने छलकना भूले नहीं
रे मन बता
खुमारी कौन सी सुहाएगी
नशा चढ़ के जो उतरे नहीं
या उतरे इक बार चढ़े नहीं
रे मन बता
गेरु रंग ओढ़े धानी-मन
श्वेत देह बसे गुलाबी मर्म
नीला प्रकाश रहे अन्तस् में
रे मन बता
खगोली हंसी युक्त व्योम
हंसी पे अट्टहास करते तुम
झेन गूंज जेहन से गई नहीं

Lata Tewari
2 August at 17:29

सच है





सच और झूठ में सच क्या और झूठ क्या !
इन्द्रियों से महसूस हो सच औ बाकि झूठ
पर इन्द्रियों से परे भी सच झूठ का डेरा है
हाँ! भ्रम का कोई अंत है क्या या शुरुआत
जो आज सच है कल के सपने हो जाते है
वो भ्रम कितना ही गहरे खोदे मानुस मन
माया जन्म स्थली मस्तिष्क है ह्रदय वाहन
वहन करती देह की सात इंद्रियां, भ्रम है
जन्म से भ्रम का साम्राज्य म्रत्यु तक साथ
जो है नहीं उसका भ्रम क्या औ सच क्या
भ्रमित नारद का विलाप संताप भूले क्या !
नदी किनारे, गुरु शिष्य संवाद कौन भूले !
ताउम्र गुजर जाये जब पलक झपकते ही
फिर सत्य सामने आये, सत्य है भ्रम नहीं
उम्र गयी भ्रम ही भ्रम में माया ही माया है
पर आरम्भ औ अंत में, न भ्रम न माया है
बस छूलो एक बार तुम पारसमणि है वहीँ
कुंदन तुम ही हो ये हिसाब मिलेगा सहेजा
उस दिन कहना भ्रम क्या और माया क्या
सच और झूठ में सच क्या और झूठ क्या !
थरथराती देह पांच इन्द्रियों को भी पता है
परंसत्य से ह्रदय दृढमस्तिष्क भी डोला है
क्षणिक मोह झूठ से बहलते कम्पित ह्रदय
सुनो अनहद स्वर दुंदुभि की चोट , सच है

तुम्हारी "सीमा"


हाथ फैलाओ पाखी की तरह
उड़ान भरो ऊँची ऊँची ,
भूलो नहीं पंखो की हद 
बस एक हाथ की
है तुम्हारी सीमा
अपनी सोच संग तैरो गहराई में
नापो गंभीरता मछली जैसे
भूलो नहीं तैरने की हद
बस एक हाथ की
है तुम्हारी सीमा
अपने कर्म को खूब परखो
भाग्य से खेलो जीभर के
भूलो नहीं पारखी बन
बस एक हाथ की
है तुम्हारी सीमा
अपनी सीमा को जानो प्राणी
देह की बुद्धि भाव की
जीवन की शक्ति की
तनमन की हद है
बस एक हाथ की
बस एक हाथ की दूरी पे रहता
समाज, धर्म, व्यव्हार का भार
नियम , रीति-रिवाज
सम्बन्ध, प्रेम से दुरी
बस एक हाथ की
पलभर बैठो सिद्धासन पे देखो
परखो दूरी सुखासन और
शवासन के बीच में
चांदीरेख बंधी है
बस एक हाथ की

Lata Tewari

कोरी किताब


जिस किताब काआदि न अंत
लिख मिटती बिखर सिमटती
ऐसी अद्भुत तू जीवन पुस्तक
बीड़ा उठाया ख़त्म करने का
जिसकी शुरुआत ही नहीं हुई
वो ख़त्म भी कैसे होगी, सोचो !
फिर भी लोगों ने सुना सुनाया
आसान पे बिठा शाही भोज दे
पीर पैगम्बर संत उपमा दे दी
उन्हें जो चल पड़े उस राह में
जहाँ कोई निशान ही नहीं थे

जब तक मिली है इसे जिए जाओ



गीत गाये जाओ, गुनगुनाये जाओ
जब तक मिली है,इसे जिए जाओ

जिए जाओ ! इसमें रंग भरे जाओ
बांसुरी से कोई तान , छेड़े जाओ

फूल की सुगंध बन , बिखरे जाओ
घुंघरू की धुन नर्तन पे झूमे जाओ

मिली नियामत, गौर फर्माया करो
हमजैसे ही उम्र इनकी भी कम है

मेला ही तो है बाजार सजा हुआ है
चार दिन चार पहर साथ ले जाओ

बेमतलब में मतलब न तलब करो
बेमतलब तू मतलब में जिये जाओ

गीत गाये जाओ, गुनगुनाये जाओ
जब तक मिली है,इसे जिए जाओ
Lata Tewari

5 August at 12:55

Tuesday 9 August 2016

प्रार्थना और जीवन की कुंजी "सिरजनहार शब्द” (मीरदाद के गीत)

Prayers and life-key the creative  word " word"

      अध्याय-13
    ☞ प्रार्थना ☜

हमेशा अपने-आप को प्रार्थना करो 
(विषय से जुडी एक कथा ओशो संकलन से )

एक बेटी ने एक संत से आग्रह किया कि वो घर आकर उसके बीमार पिता से मिलें, प्रार्थना करें...बेटी ने ये भी बताया कि उसके बुजुर्ग पिता पलंग से उठ भी नहीं सकते...
जब संत घर आए तो पिता पलंग पर दो तकियों पर सिर रखकर लेटे हुए थे...
एक खाली कुर्सी पलंग के साथ पड़ी थी...संत ने सोचा कि शायद मेरे आने की वजह से ये कुर्सी यहां पहले से ही रख दी गई...

संत...मुझे लगता है कि आप मेरी ही उम्मीद कर रहे थे...
पिता...नहीं, आप कौन हैं...
संत ने अपना परिचय दिया...और फिर कहा...मुझे ये खाली कुर्सी देखकर लगा कि आप को मेरे आने का आभास था...
पिता...ओह ये बात...खाली कुर्सी...आप...आपको अगर बुरा न लगे तो कृपया कमरे का दरवाज़ा बंद करेंगे...
संत को ये सुनकर थोड़ी हैरत हुई, फिर भी दरवाज़ा बंद कर दिया...
पिता...दरअसल इस खाली कुर्सी का राज़ मैंने किसी को नहीं बताया...अपनी बेटी को भी नहीं...पूरी ज़िंदगी, मैं ये जान नहीं सका कि प्रार्थना कैसे की जाती है...मंदिर जाता था, पुजारी के श्लोक सुनता...वो सिर के ऊपर से गुज़र जाते....कुछ पल्ले नहीं पड़ता था...मैंने फिर प्रार्थना की कोशिश करना छोड़ दिया...लेकिन चार साल पहले मेरा एक दोस्त मिला...उसने मुझे बताया कि प्रार्थना कुछ नहीं भगवान से सीधे संवाद का माध्यम होती है....उसी ने सलाह दी कि एक खाली कुर्सी अपने सामने रखो...फिर विश्वास करो कि वहां भगवान खुद ही विराजमान हैं...अब भगवान से ठीक वैसे ही बात करना शुरू करो, जैसे कि अभी तुम मुझसे कर रहे हो...मैंने ऐसा करके देखा...मुझे बहुत अच्छा लगा...फिर तो मैं रोज़ दो-दो घंटे ऐसा करके देखने लगा...लेकिन ये ध्यान रखता कि मेरी बेटी कभी मुझे ऐसा करते न देख ले...अगर वो देख लेती तो उसका ही नर्वस ब्रेकडाउन हो जाता या वो फिर मुझे साइकाइट्रिस्ट के पास ले जाती...
ये सब सुनकर संत ने बुजुर्ग के लिए प्रार्थना की...सिर पर हाथ रखा और भगवान से बात करने के क्रम को जारी रखने के लिए कहा...संत को उसी दिन दो दिन के लिए शहर से बाहर जाना था...इसलिए विदा लेकर चले गए..
दो दिन बाद बेटी का संत को फोन आया कि उसके पिता की उसी दिन कुछ घंटे बाद मृत्यु हो गई थी, जिस दिन वो आप से मिले थे...
संत ने पूछा कि उन्हें प्राण छोड़ते वक्त कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई...
बेटी ने जवाब दिया...नहीं, मैं जब घर से काम पर जा रही थी तो उन्होंने मुझे बुलाया...मेरा माथा प्यार से चूमा...ये सब करते हुए उनके चेहरे पर ऐसी शांति थी, जो मैंने पहले कभी नहीं देखी थी...जब मैं वापस आई तो वो हमेशा के लिए आंखें मूंद चुके थे...लेकिन मैंने एक अजीब सी चीज़ भी देखी...वो ऐसी मुद्रा में थे जैसे कि खाली कुर्सी पर किसी की गोद में अपना सिर झुकाया हो...संत जी, वो क्या था...
ये सुनकर संत की आंखों से आंसू बह निकले...बड़ी मुश्किल से बोल पाए...काश, मैं भी जब दुनिया से जाऊं तो ऐसे ही जाऊं..
मीरदाद :  तुम व्यर्थ में प्रार्थना करते हो
जब तुम अपने आप को छोड़
देवताओं को सम्बोधित करते हो।
क्योकि तुम्हारे अंदर है
आकर्षित करने की शक्ति,
जैसे दूर भगाने की की शक्ति तुम्हारे अंदर है।
और तुम्हारे अंदर हैं वे वस्तुएँ
जिन्हें तुम आकर्षित करना चाहते हो,
जैसे वे वस्तुएँ जिन्हें तुम दूर
भगाना चाहते हो तुम्हारे अंदर हैं।
क्योंकि किसी वस्तु को लेने का
सामर्थ्य रखना उसे देने का
सामर्थ्य रखना भी है।
जहां भूख है, वहां भोजन है।
जहां भोजन है, वहां भूख भी अवश्य होगी।
भूख की पीड़ा से व्यथित होना
तृप्त होने का आनंद लेने का सामर्थ्य रखना है।
हाँ, आवश्यकता में ही
आवश्यकता की पूर्ति है।
क्या चाबी ताले के प्रयोग
का अधिकार नहीं देती?
अथवा क्या ताला चाबी के प्रयोग
का अधिकार नहीं देता  ?
क्या ताला और चाबी दोनों दरवाजे के प्रयोग का अधिकार नहीं देते ?
जब भी तुम चाबी गँवा बैठो
या उसे कहीं रखकर भूल जाओ,
तो लोहार से आग्रह करने के लिये उतावले मत होओं।
लोहार ने अपना काम कर दिया है,
और अच्छी तरह से कर दिया है;
उसे वही काम बार-बार
करने के लिये मत कहो।
तुम अपना काम करो और
लोहार को अकेला छोड़ दो;
क्योंकि जब एक बार वह तुमसे निपट चूका है,
उसे और भी काम करने हैं।
अपनी स्मृति में से दुर्गन्ध
और कचरा निकाल फेंको,
और चाबी तुम्हे निश्चय ही मिल जायेगी|
अकथ प्रभु ने उच्चारण द्वारा
जब तुम्हे रचा तो तुम्हारे रूप
में उसने अपनी ही रचना की।
इस प्रकार तुम भी अकथ हो।
प्रभु ने तुम्हे अपना कोई
अंश प्रदान नहीं किया–
क्योंकि वह अंशों में नहीं बाँट सकता;
उसने तो अपना समग्र,
अविभाज्य, अकथ ईश्वरत्व ही
तुम सबको प्रदान कर दिया।
इससे बड़ी किस विरासत की
कामना कर सकते हो तुम ?
और तुम्हारी अपनी कायरता का
अन्धेपन के सिवाय और कौन,
या क्या, तुम्हे पाने से रोक सकता हैं ?
फिर भी, कुछ–अन्धे कृतध्न लोग–
अपनी विरासत के लिये
कृतज्ञं होने के बजाय,
उसे प्राप्त करने की
राह खोजने के बजाय,
प्रभु को एक प्रकार का कूडाघर
बना देना चाहते हैं
जिसपे  वे अपने दांत
और पेट के दर्द,
व्यापार में अपने घाटे,
अपने झगडे, अपनी बदले
की भावनाएं तथा
अपनी निद्राहीन रातें ले
जाकर फेंक सकें।
कुछ अन्य लोग प्रभु को
अपना निजी कोष बना लेना चाहते हैं
जहां से वे जब चाहें संसार की
चमकदार निकम्मी वस्तुओं में से
हर ऐसी वस्तु को पाने की
आशा रखते हैं जिसके
लिए वे तरस रहे हैं।
कुछ अन्य लोग प्रभु को
एक प्रकार का निजी मुनीम
बना लेना चाहते हैं,
जो केवल यह हिसाब ही न रखे
कि वे किन चीजों के लिये दूसरों के कर्जदार हैं
और किन चीजों के लिये उनके कर्जदार है,
बल्कि उनके दिये कर्ज को वसूल भी करे
और उनके उनके खाते में हमेशा
एक बड़ी रकम जमा दिखाये।
हाँ…..
अनेक तथा नाना प्रकार के हैं
वे काम जो मनुष्य प्रभु को सौंप देता है।
फिर भी बहुत थोड़े लोग ऐसे होंगे
जो सोचते हों कि यदि सचमुच
इतने सारे काम करने की
जिम्मेदारी प्रभु पर है
तो वह अकेला ही उनको निपटा लेगा,
और उसे यह आवश्यकता नहीं होगी
कि कोई उसे प्रेरित करता रहे
या अपने कामों की याद दिलाता रहे।
क्या प्रभु को तुम उन घड़ियों की
याद दिलाते हो
जब सूर्य उदय होना है
और जब चन्द्र को अस्त ?
क्या उसे तुम दूर के खेत में पड़े
अनाज के उस दाने की याद दिलाते हो
जिसमे जीवन फूट रहा है ?
क्या उसे तुम उस मकडी की
याद दिलाते हो
जो रेशे से अपना कौशल-पूर्ण
विश्राम-गृह बना रही है ?
क्या उसे तुम घोंसले में पड़े
गौरेया के छोटे-छोटे बच्चों की
याद दिलाते हो ?
क्या तुम उसे उन अनगिनत
वस्तुओं की याद दिलाते हो
जिनसे यह असीम ब्रह्माण्ड भरा हुआ है ?
तुम अपने तुच्छ व्यक्तित्व को
अपनी समस्त अर्थहीन
आवश्यकताओं सहित बार-बार
उसकी स्मृति पर क्यों लादते हो ?
क्या तुम उसकी दृष्टि में गौरेया,
अनाज और मकड़ी की तुलना में
कम कृपा के पात्र हो ?
तुम उनकी तरह अपने उपहार
स्वीकार क्यों नहीं करते
और बिना शोर मचाये,
बिना बिना घुटने टेके,
बिना हाथ फैलाये और
बिना चिंता-पूर्वक भविष्य में
झाँके अपना-अपना काम
क्यों नहीं करते ?
और प्रभु दूर कहाँ है
कि उसके कानों तक अपनी सनकों
और मिथ्याभिमानों को, अपनी
स्तुतियों और अपनी
फरियादों को पहुँचाने के लिये
तुम्हे चिल्लाना पड़े ?
क्या वह
तुम्हारे अंदर और
तुम्हारे चारों ओर नहीं है ?
जितनी तुम्हारी जिव्हा
तुम्हारे तालू के निकट है,
क्या उसका कान तुम्हारे
मुँह के उससे कहीं
अधिक निकट नहीं है ?
प्रभु के लिये तो उसका
ईश्वरत्व ही काफी है जिसका
बीज उसने तुम्हारे अंदर रख दिया है।
यदि अपने ईश्वरत्व का बीज
तुम्हे देकर तुम्हारे बजाय
प्रभु को ही उसका ध्यान
रखना होता तो तुममे क्या खूबी होती ?
और जीवन में तुम्हारे करने के
लिये क्या होता ?
और यदि तुम्हारे करने को
कुछ भी नहीं है,
बल्कि प्रभु को ही तुम्हारी
खातिर सब करना है,
तो तुम्हारे जीवन का क्या महत्व है ?
तुम्हारी सारी प्रार्थना से क्या लाभ है ?
अपनी अनगिनत चिंताएँ और
आशाएँ प्रभु के पास मत ले जाओ।
जिन दरवाजों की चाबियाँ
उसने तुम्हे सौंप दी है,
उन्हें तुम्हारी खातिर खोलने
के लिये मिन्नतें मत करो।
बल्कि अपने ह्रदय की विशालता में खोजो।
क्योंकि ह्रदय की विशालता में मिलती है
हर दरवाजे की चाबी।
और ह्रदय की विशालता में मौजूद हैं
वे सब चीजें जिनकी तुम्हे भूख और प्यास है,
चाहे उनका सम्बन्ध बुराई से है या भलाई से।
तुम्हारे छोटे से छोटे आदेश
का पालन करने को तैयार
एक विशाल सेना तुम्हारे
इशारे पर काम करने के
लिये तैनात कर दी गयी है।
यदि वह अच्छी तरह से सज्जित हो,
उसे कुशलतापूर्वक शिक्षण दिया गया हो
और निडरता पूर्वक उसका
संचालन किया गया हो,
तो उसके लिये कुछ भी
करना असम्भव नहीं,
और कोई भी बाधा उसे
अपनी मंजिल पर पहुँचने से रोक नहीं सकती।
और यदि वह पूरी तरह सज्जित न हो,
उसे उचित शिक्षण न दिया गया हो
और उसका सञ्चालन साहसहीन हो,
तो वह दिशाहीन भटकती रहती है,
या छोटी से छोटी बाधा के सामने
मोरचा छोड़ देती है,
और उसके पीछे-पीछे
चली आती है शर्मनाक पराजय।
वह सेना और कोई नहीं,
साधुओ…
इस समय तुम्हारी रगों में
चुपचाप चक्कर लगा रही
सूक्ष्म लाल कणिकाएँ हैं;
उनमे से हरएक शक्ति का चमत्कार,
हरएक तुम्हारे समूचे जीवन का
और समस्त जीवन का–उनकी
अन्तरतम सूक्ष्मताओं सहित–
पूरा और सच्चा विवरण।
ह्रदय में एकत्रित होती है यह सेना;
ह्रदय में से ही बाहर निकलकर
यह मोरचा लगाती है।
इसी कारण ह्रदय को इतनी
ख्याति और इतना सम्मान प्राप्त है।
तुम्हारे सुख और दुःख के आँसू
इसी में से फूटकर बाहर निकलते हैं।
तुम्हारे जीवन और मृत्यु के भय
दौड़कर इसी के अन्दर घुसते हैं।
तुम्हारी लालसाएँ और कामनाएँ
इस सेना के उपकरण हैं
तुम्हारी बुद्धि इसे अनुशासन में रखती है।
तुम्हारा संकल्प इससे कवायद करवाता है
और इसकी बागडोर संभालता है ।
जब तुम अपने रक्त को एक प्रमुख
कामना से सज्जित कर लो
जो सब कामनाओं को चुप कर देती है
और उन पर छा जाती है;
और अनुशासन एक प्रमुख विचार को सौंप दो,
तब तुम विश्वास कर सकते हो
कि तुम्हारी वह कामना पूरी होगी।
कोई संत भला संत कैसे हो सकता है
जब तक वह अपने मन की
वृति को संत-पद के अयोग्य
हर कामना से तथा हर वि
चार से मुक्त न कर दे,
और फिर एक अडिग संकल्प के द्वारा
उसे अन्य सभी लक्ष्यों को
छोड़ केवल संत-पद की प्राप्ति
के लिये यत्नशील रहने का निर्देश न दे?
मैं कहता हूँ कि आदम के समय से
लेकर आज तक की हर पवित्र कामना,
हर पवित्र विचार,
हर पवित्र संकल्प उस मनुष्य की
सहायता के लिये चला आयेगा
जिसने संत-पद प्राप्त करने का
ऐसा दृढ़ निश्चय कर लिया हो।
क्योंकि सदा ऐसा होता आया है
कि पानी, चाहे वह कहीं भी हो,
समुद्र की खोज करता है
जैसे प्रकाश की किरने
सूर्य को खोजती हैं।
कोई हत्यारा अपनी योजनाएँ
कैसे पूरी करता है?
वह कवल अपने रक्त को
उत्तेजित उसमे ह्त्या के
लिये एक उन्माद-भरी
प्यास पैदा करता है,
उसके कण-कण को हत्यापूर्ण
विचारों के कोड़ों की
मार से एकत्र करता है,
और फिर निष्ठुर संकल्प से
उसे घातक बार करने
का आदेश देता है।
मैं तुमसे कहता हूँ कि केन*
से लेकर आज तक का हर
हत्यारा बिना बुलाये
उस मनुष्य की भुजा को
सबल और स्थिर बनाने के
लिये दौड़ा आयेगा
जिस पर ह्त्या का ऐसा नशा सवार हो।
क्योंकि सदा ऐसा होता आया है
कि कौए, कौओं का साथ देते हैं
और लकड़ बग्घे लकड़-बग्घों का।
इसलिये प्रार्थना करना
अपने अंदर एक ही प्रमुख कामना की
एक ही प्रमुख विचार की
एक ही प्रमुख संकल्प की
संचार करना है।
यह अपने आप को इस
तरह सुर में कि जिस वस्तु
के लिये भी तुम प्रार्थना करो,
उसके साथ पूरी तरह एक-सुर,
एक-ताल हो जाओ।
इस ग्रह का वातावरण,
जो अपने सम्पूर्ण रूप में
तुम्हारे ह्रदय में प्रतिबिम्बित है,
उन सब बातों की आवारा
स्मृतियों से तरंगित है जिन्हें
उसने अपने जन्म से देखा है।
कोई वचन या कर्म;
कोई इक्षा या निःश्वास;
कोई क्षणिक विचार या
अस्थाई सपना; मनुष्य या
पशु का कोई श्वास;
कोई परछाईं; कोई भ्रम ऐसा
नहीं जो आज के दिन तक
अपने-अपने रहस्यमय रास्ते
पर न चलता रहा हो,
और समय के अंत तक इसी
प्रकार उस पर चलते न रहना हो।
उनमे से किसी एक के साथ भी तुम
अपने ह्रदय का सुर मिला लो,
और वह निश्चय ही उसके तारों
पर धुन बजाने के लिय तेजी से दौड़ा आयेगा।
प्रार्थना करने के लिए तुम्हे
किसी होंठ या जिव्हा की
आवश्यकता नहीं।
बल्कि आवश्यकता है एक मौन,
सचेत ह्रदय की,
एक प्रमुख कामना की,
एक प्रमुख विचार की,
और सबसे बढ़कर,
एक प्रमुख संकल्प की
जो न संदेह करता है न संकोच।
क्योंकि शब्द व्यर्थ हैं
यदि प्रत्येक अक्षर में ह्रदय
अपनी पूर्ण जागरूकता के
साथ उपस्थित न हो।
और जब ह्रदय उपस्थित और सजग है,
तो जिव्हा के लिये यह बेहतर होगा कि
वह सो जाये,
या मुहरबन्द होंठों के पीछे छिप जाये।
न ही प्रार्थना करने के लिये
तुम्हें मन्दिरों की आवश्यकता है।
जो कोई अपने ह्रदय में
मन्दिर को नहीं पा सकता,
वह किसी भी मन्दिर में
अपने ह्रदय को नहीं पा सकता।
फिर भी मैं तुमसे यह सब कहता हूँ,
और जो तुम जैसे हैं उनसे भी,
किन्तु प्रत्येक मनुष्य से नहीं,
क्योंकि अधिकाँश लोग अभी भ्रम में हैं।
वे प्रार्थना की जरुरत तो महसूस करते हैं,
लेकिन प्रार्थना करने का ढंग नहीं जानते।
वे शब्दों के बिना प्रार्थना कर नहीं सकते,
और शब्द उन्हें मिलते नहीं
जब तक शब्द उनके मुँह में न
डाल दिये जायें।
और जब उन्हें अपने ह्रदय
की विशालता में विचरण
करना पड़ता है तो वे खो जाते हैं,
और भयभीत हो जाते हैं;
परन्तु मंदिरों की दीवारों के
अंदर और अपने जैसे प्राणियों
के झुंडों के बीच उन्हें सांत्वना
और सुख मिलता है।
कर लेने दो उन्हें अपने मंदिरों का निर्माण।
कर लेने दो उन्हें अपनी प्रार्थनाएँ।
किन्तु तुम्हें तथा प्रत्येक मनुष्य
को दिव्य ज्ञान के लिये
प्रार्थना करने का आदेश देता हूँ।
उसके सिवाय अन्य किसी
वस्तु की चाह रखने का अर्थ है
कभी तृप्त न होना।
याद रखो,
जीवन की कुंजी "सिरजनहार शब्द” है। ‘
सिरजनहार शब्द’ की कुंजी प्रेम है।
प्रेम की कुंजी दिव्य ज्ञान है।
अपने ह्रदय को इनसे भर लो,
और बचा लो अपनी जिव्हा को
अनेक शब्दों की पीड़ा से,
और रक्षा कर लो
अपनी बुद्धि का अनेक प्रार्थनाओं के बोझ से,
और मुक्त कर लो अपने ह्रदय
को सब देवताओं की दासता से 
जो तुम्हे उपहार देकर
अपना दास बना लेना चाहते हैं;
जो तुम्हें एक हाथ से केवल
इसलिए सहलाते हैं कि दूसरे
हाथ से तुम पर बार का सकें;
जो तुम्हारे द्वारा प्रशंसा
किये जाने पर संतुष्ट और कृपालु होते हैं,
किन्तु तुम्हारे द्वारा कोसे जाने
पर क्रोध और बदले की भावना से भर जाते हैं;
जो तब तक तुम्हारी बात नहीं
सुनते जब तक तुम उन्हें पुकारते नहीं;
और तब तक तुम्हे देकर
बहुधा देने पर पछताते हैं;
जिनके लिये तुम्हारे आँसू अगरबत्ती हैं,
जिनकी शान तुम्हारी दयनीयता में है।
हाँ…….
अपने ह्रदय को इन सब देवताओं
से मुक्त कर लो, ताकि तुम्हें उसमे
वह एकमात्र प्रभु मिल सके जो
तुम्हें अपने आप से भर देता है चाहता है
की तुम सदैव भरे रहो।
बैनून: कभी तुम मनुष्य को
सर्वशक्तिमान कहते हो तो
कभी उसे लावारिस
कहकर तुच्छ बताते हो।
लगता है तुम हमें धुन्ध में लाकर छोड़ रहे हो।
मीरदाद हँसता है और आकाश की और देखता .. मौन से कुछ अलोकिक आता दिखाई देता है ….