Thursday 24 March 2016

आधी चाभी का सच

आधी टूटी दिखती 
वो जादुई चाभी .....
खजाने पे टंगे हुए
बड़े से डरावने ताले की , जिसका आधा भाग 
कभी टुटा ही नहीं , अदृश्य जुड़ा हुआ 
सदा से .............

उसी मूल चाभी से , अपने ही अधूरे से 
दिखतेपुरे वर्तुल को आवृत्ति पुनरावृति 
युक्त , सदियों से कोल्हू का बैल 
पूरा कर रहा है .......
और इंसान बन 
आधी दृश्य चाभी हाथ में ले के, 
वो भटक रहा है ......
उस अदृश्य टुकड़े 
की कड़ी को जोड़ने को भटकता 
इधर उधर बेशकीमती उम्र ...  
कौड़ी में गवां रहा है .......

Wednesday 23 March 2016

" बेकरार दिल तू गाए जा....."





दुनियाँ को बदलने की अजब रवायत है 

कबतक ! 
किसलिए ! 

बुद्धिजीवी ; ये कवायत है ?
कुछ सच वो कह के चले गए 
कुछ तुम्हारे कहने के लिए छोड़ गए
कुछ वे कह कह के चले गए है
कुछ कहने समझने के लिए छोड़ गए है 

कुछ है जो अभी भी अथक कहे जा रहे है
कुछ कह कह के जमुहाए जा रहे है
कुछ सुन सुन के उबासी लिए जा रहे है
सब कह कह सुन सुन के थके जा रहे है
नयी पीढ़ी को पुरानी परम्पराएं दिए जा रहे है!!

यूँ ही ... जीने का मकसद ... वो ...दिए जा रहे है
यूँ ही..... वे..... मकसद ... जीने को लिए जा रहे है 

धर्मान्धता की हद से हर दिन  बिन सोचे समझे  ,
सैकड़ों बेरोजगार- भक्त  अंधराहों से गुजरे जा  रहे है
अपनी ही बनाई मान्यताओं की खातिर वक़्ता श्रोता
गहन अर्थी द्वित्व अपना ही अंतरनिहित मौनपक्ष समेटे
इक सदी से अपनी ही धुन में चले जा रहे है ..
गीत मिलन के गाये और गवाए जा रहे है
रुके रुके से कदम रुक के बार बार चले
करार ले / दे के , तेरे दर से , बेक़रार / करार हो के चले
बस यूँ  ही दिल मिल के गाते रहें और सजते रहें  वीराने !!

अलमस्त फ़क़ीर जो  इक अकेला काफी ,
मगन मस्त गुनगुनाये जा रहे हैं ...... 
 - " बेकरार दिल तू गाए जा....."
" बस गाये जा , गुनगुनाए  जा "

मायावी वख्त


वख्त से कभी न बांधना 
मिटती-बनती रेखाओं को 
उभरती मायावी तस्वीरें है
ऐसी...वैसी...कैसी...भी हो
आखिर वख्त बहता बीत जाता है …
.
सरका अपाहिज बन के
कभी रेंगता वृद्ध सदृश
कभी दौड़ता बालक सा
कभी नैतिक सारथी सा
आखिर वख्त बहता बीत जाता है …
.
कभी कठिन कभी सरल
मुस्कान तो कभी जलज
कभी खिलखिलाता हुआ
औ कभी नैनों में बूँद बन
आखिर वख्त बहता बीत जाता है …
.
कभी नदी हो कभी समंदर
कभी पर्वत हो कभी घाटी
रेगिस्तान में फैले रेत्कन
कभी सुगन्धित फूलों सा
आखिर वख्त बहता बीत जाता है …
.
आगाज कभी अंजाम कभी
कभी धूल फँकाता राहों की
बेशकीमती हीरे सा गिरता
स्वातिबूँद सा दीनझोली में !
आखिर वख्त बहता बीत जाता है ...

Thursday 17 March 2016

मनपाखी



बादलों के इसपार ही नहीं, उसपार भी साफ़ दिखता है 
न जाने क्यूँ, मुझे अपनी ही उड़ानों का असर मिलता है !



स्वप्न तुल्य जीवन सम्पदा, अभिसार भाव स्वप्नवत
जो जैसा भी है वैसा ही नैन का अभिराम उसे मिलता है !



न धुंध का अँधेरा है, न रंगो की बरसात से गीला मन है
अब तो नील तू ही इस पार से उस पार तलक मिलता है !



लौ ह्रदयदीप से अंगड़ाई ले जो तू निकली बाहर इकबार
रौशनी से रौशन हरसू सुख़नवर मुस्कराता तू मिलता है !



Om Pranam