Monday, 7 April 2014

तुम ही कहो करूनेश !

तुम ही कहो  करूनेश (परम)
क्या कहूं  , कि हूँ  किस  घाटी  का 
पूछते है , किस धारा से जन्मा  हूँ !
आखिर किसी  को तो मानता हूँ ! 
किस सोते  से जुड़ा हुआ !! 
किस   झरने की   बूँद   हूँ  मै !! 
किस उपवन से  जन्म है मेरा 
किस वृक्ष का फूल हूँ मैं।। 
खड़ा हुआ मध्य उपवन में  
मिश्रित सबमे अविचल  स्थिर ।।
बिखरे  फैले दिस दिशा में 
सुगन्धित  सुंदर  बहुरंगी   पुष्प 
और मैं मध्य हृदयस्थल में  स्थिर  ।।



पाता हूँ खुद को हवा  सा  
जो  बहता जाता
छूता जाता   
बढ़ता  जाता ,
नयी दिशा को।।
गंतव्य  मेरा 
मैं  कैसे जानु 
किस से जोडूं 
किस से तोडू 
किस को मानु ।।

अन्तस्थल में दीप जलाके  
फूँक दिया  मंत्र कानो मे 
" आपो  गुरु आपो भव् "।।

मैं ही हूँ मेरे अन्तस्तम में

 मैं ही मित्र मेरा , मैं ही प्रेमी 

       मै ही कृष्णा राधा भी मैं ही ।।   



राधा बन समर्पित
प्रिय को कैसे बाटूँ 
मित्रता  को बाँट लिया।।  
सब को मित्र  बना लिया 
कहा-सुना , सोचा- समझा 
और आगे  बढ़ चला 
किसका - जीवन ,
किसकी- खातिर . 
सब में  करुणा ,  
सब में प्रेम ।।

खड़ा हुआ  मैं  संसार  के उपवन में 
फूल खिले जहाँ भांति भांति के 
अपनी अपनी कथा सुनाते
सबकी सुनता जाता ,  
आगे बढ़ता जाता  



तुम ही कहो  करूनेश (परम)
क्या कहूं  कि  हूँ  किस  घाटी  का ।।



ॐ प्रणाम 

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