Sunday 26 April 2015

सुलझे से इशारे है ....



एकलयता प्रकृति की 
धरती ही नहीं कांपती 
समंदर भी थरथराता
पर्वत के कम्पन से 
बर्फीले तूफान
गड़-तड़-गड़
का राग गाते है  !
इतना ही नहीं 
तड़ित चमकार
आंधी तूफान 
आसमानी  विष 
पानी बन बरसता
ज्वालामुखी फूटते
दहकते अंगारे 
पिघलते और बहते है  !
पँचतत्व अस्तव्यस्त 
योजनाबद्ध
बल प्रदर्शन में 
प्रलयकाल आरम्भ हुआ  
अपने अस्तित्व को 
भूलने  की सजा 
हम तुम ही नहीं 
समूची कायनात पाती है
सुलझे से इशारे है .....
और अध्यात्म भी क्या है !
.
धरती पे पड़ी थी जो
जीवित-चेतन-मिटटी 
क्षण में धूल-धूसरित 
पुनः मिटटी में मिली 
धरती एकपल नहीं लेती 
वर्षो सहेजे मनुष्य इतिहास 
विज्ञानं  और कला, धर्म 
को समेटने में 
कला पानी पे बहते रंग 
वैसे इतिहास भी क्या  है 
पल में उजड़े समूचे 
कस्बों के अवशेष  
चर्च, मंदिर, मस्जिद के 
कलात्मक शेष अवशेष 
मेमोरिएल युद्धों के !
पुष्प अर्पित शहीद स्मारक 
शहीद होने के लिए
खाली पड़ी  सीमाएं 
या धरती पे खींची लकीरे ! 
इतिहास  तुम्हारा  
मरणोपरांत अश्रु लिए 
पुरस्कार लेते परिवार 
ओजोन को भेदते 
विज्ञानं के रॉकेट बाण 
और नक्षत्र भेदन करते 
प्रमाण रहस्य खोजते 
एक एक कदम  बढ़ाते 
मानवीय हौसले  ......
सुलझे से इशारे है  .......
और उचित आचार क्या है !
.
राम रावण युद्ध 
महाभारत कथा 
कृष्ण की कुशलता 
चाणक्य का व्यव्हार 
सम्राट  के इतिहास 
राजनैतिक षड्यंत्र  
प्रथम द्वितीय तृतीय 
युद्ध के समेटे बचे टुकड़े 
बनाते इमारती दस्तावेज 
कहते है संग्रहालय दास्ताँ 
हिरोशिमा की कहानी 
अपने ही विकास को नष्ट करती 
मनुष्यों की योजनाएं 
जीने के तरीके सिखाती 
धार्मिक योजनाये
योजनाबद्ध स्वयं के वध 
में परिवर्तित होती 
सुलझे से इशारे है ....
और इतिहास भी क्या है !

Saturday 25 April 2015

अभिव्यक्ति के घेरे



जीने के लिए  दिल को धड़कन   चाहिए 
धड़कन  को  भावों  का  तूफान   चाहिए 
भावों के तूफ़ान को  गीत  बोल   चाहिए 
गीतों के  बोल  को मेहरबां धुन   चाहिए 
धुन को कलंदर के लब का साथ  चाहिए   
कलंदर  को  दिल  का  मेहमान   चाहिए 
धड़कन को छू ले मेहमां को भाव चाहिए
दिल को भाव-गीत-मेहरबा साथ  चाहिए 



और अंत में 

जिंदगी इसीपल में है और इसी पल में जीना चाहिये 
  बरसो बाद का और बरसों पहले का हवाला न चाहिए  


Monday 20 April 2015

इक इक मोती चुन जोड़


इश्क  मुश्क  आज़माता है
रहम  का  नूर  बरसाता  है
रहनुमाई  के इशारे देता है 
कर्ताधर्ता वो , सोचता   तू   
दातार वो  , मांगनवार  तू  
ये   भी  तो   नाइंसाफी  है 
.
तनिक सोच उसकी तरफ 
उसका राज्य कैसा है,  वो-
राजा कैसा है , तेरा प्यारा 
कैसा ! प्रीतमभाव कैसा है
कब ! क्यों ! कितना देता !
या तू सिर्फ भिखमंगा जो 
अल्लाह के दरवाजे  खड़ा 
कहता  रहता रटंत  तोता 
जो किया "मैं"-ने, वापिस 
अल्लाह के  नाम पे दे दे !!
.
गर वो  प्रियतम तू प्रेयसि 
तो   बैठ  उसके  ह्रदय  में !
उसके भाव में, व्यव्हार में 
उसकी ताल के  साथ ताल 
मिला, नृत्य कर, गीत गा
संगीत  उभरेगा  स्वयं  ही 
बोल  समस्त  खो  जायेंगे 
तू औ प्रियतम का आगोश 
अद्भुत  मिलन  समागम
ऊपर अम्बर न नीचे जमीं !!
.
रुको ! तनिक  ठहरो ! यहीं !
अर्थ व्यर्थ अनर्थ  न करना 
यूँ  उत्तम  स्वप्न  न देखना 
कर्म धर्म भाव हो  दिन रैन
सूफी का कलाम बन जा,तू 
बन जा मोती प्रेम नयन का
पहले मीरा का राग बन जा 
भावनाओं का तार  बन जा 
युग्म अनुभूति हो परम से !
प्रथमभाव विराट तू बनजा  
प्रियतम योग्य तो  बन जा 
कृति स्वीकृत आभारी बन 
अस्तित्वगत क्षुद्र तो होजा
फिर बस चकोर तू  बन जा 
.
अभी  तो  तू  स्वयं  खंडित
तेरा    रेशा    रेशा   खंडित 
तेरा   भाव  गृह  ह्रदय  की 
आस्था.................खंडित 
जिसमे  बसता  रोम रोम 
शरीर.................. खंडित 
जहाँ तूने  जन्म  है लिया 
धरती  खंड खंड  है खंडित 
जिससे रटता मन्त्र सतत 
तेरी वो  माला  भी खंडित 
इक इक  मोती चुन जोड़ 
पहले सुन्दर माला पिरो 
और बोल प्रेम से, 
अब क्या बोलू ! 
आभारी हूँ ! 
कृतज्ञ हूँ ! 
मूढ़ हूँ !
न प्रश्न शेष  
न संशय 
न ही शेष इक्छा 
अब न कोई नियम !
न मर्यादा ! 
तेरे वास्ते !
प्रिय ! 
तू ..
स्वीकृत ...
हर ...
हाल ...
में ..........और पूर्ण विराम।  

Om Om Om

Sunday 19 April 2015

टूटे बिखरे मिटटी के खिलौने



बेख़ौफ़ लहरे भी अंजाम से
वाकिफ, किनारे से टकरा
चूमती और बिखर जाती है 
बस यूँ ही अनवरत बहती 
अविरल 
अनगिनत
असीमित वेदनाएं !!

क्रीड़ाएं पलमें तल,है बेतल 
सब कुछ जानते हुए भी मै 
अपना घर बना जलनिधि-
किनारे पे खड़े देखती खेल     
मुग्धा
अपलक 
अनिमेष निर्दोष दृष्टि !!
.
ज्ञानयुक्त प्रलोभित मोहमाया
कीचड़ से सने गंभीर आश्वासन
स्वांस स्वांस पे सरक फिसलते 
जीने के बहाने, दिल के ठिकाने
लालसाएं
वासनाएं 
हाय अभिलाषाएं !!
.
लोग भी कैसे सिरफिरे होते है 
लहरो पे ही खेल खेलते रहते है 
उस पल जन्मे इस पल मिटते 
टूटे बिखरे मिटटी  के  खिलौने    
आश्वस्त 
संदिग्ध 
प्रमत्त पूर्व नियत मृत !!

जड़-चेतन


चेतनाएं बहती निरंतर कालांतर में  
जड़तत्व कालातीत ठहरे थामे जमे 

ऊर्जा सततप्रवाहित सनातन स्वतः  
जड़ से संयोग जन्मकाल कहलाता 

समयातीत ऊर्जा अंश है कर्म युक्त 
विचार युक्त आभा सयुक्त जीवित  

विरोधाभासी जड़ थमने को आतुर 
गिरने को उत्सुक हैरां बिखरने को 

मेरे अपने अंदर समाये तीनो जहाँ 
एक ऊपर को उठता, दूजा खींचता 

एक विजय ध्वज फहरा गर्व करता  
दूजा सदैव मरणशीलता घोष कर्ता  

एक जो पल पल तिल तिल मारता 
एक जो जीवन देता श्वांस श्वांस में 

अपने अंदर सूर्य चंद्र दोनों का वास 
एक समर्पि मृत एक ओजस तापस 

तीसरा बसता दोनों के ऊपर रहता  
कृष्ण सारथी सम कर्म संग्रह कर्ता 

सत्वि-राजसी-तामसी त्रिगुणरूप मै 
सात्वि ! इन्हे संतुलन करता चलता  

सर्वबंधन मुक्त स्वार्थीकर्मभोगी मै  
असीमित शुद्धबुद्ध साक्षी कहाता

अंश -2


१-
सच  झूठ  के दरमियान बस इतना ही फ़ासला है 
इक  इधर औ इक उधर खड़ा, बीच में पर्दा पड़ा है  
*
२-
जब मौन साथ होता है तो शब्द साथ छोड़ देते है 
जब शब्द का दामां थामा तो, मौन चला जाता है 
*
३-
उस इक पल का बयान क्या कीजे,अब चुप रहिये 
मौन में वो सब सुनता है जो शब्द बयां नहीं करते
*
४-
तैरना है तो तैरिए गहराई का भी अनुभव लीजिये 
किनारो से न लहरो के हुनर का मुआइना कीजिये
*
५-
१ से २ , २ से हुए १, फिर ११ क्यूँ ! कैसा गणित है
कर सकते थे हल चुटकी में तो इतनी मेहनत क्यूँ !
*
६-
पर्दे के इधर खेल पर्दे के उधर मेल, उफ़ ! ये कैसी 
साजिश पटकथा के गुंथन की, दिमागी खलिश है !
*
७-
रूहों के सम्बन्ध; ख़ाक के इधर भी उधर भी जुड़ें है 
खिंचाव की शक्ल में बयां होती ये रवायत रूहानी है

Friday 17 April 2015

भजगोविन्दम


बालमन सुन जो प्रौढ़ का धन

संग बन सत्संग से हो निःसंग

निःसंगत निर्मोहत्व को पाता

निर्मोही ही निश्छल हो सकता 

निश्चलता ही तो जीवनमुक्ति 

भजगोविन्दम भज गोविन्दम 

गोविन्दम भज सुन मूरखमति.....

मैं-"पिंड"



अपने मूल से भटक गया हूँ

बिछड़ गया हूँ तप्त दग्ध मैं

पिंड में बंधा आश्रयहीन सा

तड़पता किंतु कर्म बंध हुआ

ध्यानस्थ सोचता हूँ क्यूंकि

संसार से अलग हो क्षणभर

तेरी सोच से जुड़ पाता हूँ मैं !!

Thursday 16 April 2015

मोहनी माया

वो ही जाने! जिसकी ये अद्भुत माया ,

दर्पण कहे तू-मैं एक भेद न कोई दूजा !

(भाव स्त्रीरूप ,कर्म बुद्धि पुरुष+पुरुषार्थरूप)

योगिनी संग जुड़ ह्रदय में ठहरता वो योगी

जिसकी तू योग माया !


.
स्वपुरूष से मिल बनती इंद्राणी भोगी की


बनी तू भोग माया !


.
मोहनीरूप लालायित मोही का मोह बनती


नूतन तू मोह माया !


.
ह्रदय में बसती तो बुद्धि का कुरुक्षेत्र बनती 


कैसी तू ठगनी माया !



lata


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माया महा ठगनी हम जानी

तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले माधुरी बानी

केसव के कमला वे बैठी शिव के भवन भवानी

पंडा के मूरत वे बैठी तीरथ में भई पानी

योगी के योगिन वे बैठी राजा के घर रानी

कहु के हिरा वे बैठी कहु के कौड़ी कानी

भक्तन के भक्तिन वह बैठी ब्रह्मा के ब्राह्मणी

कहे कबीर सुनो भाई साधो यह सब अकथ कहानी

-कबीरदास



काहे री नलिनी तू कुमिलानी ।

तेरे ही नालि सरोवर पानीं ॥

जल में उतपति जल में बास, जल में नलिनी तोर निवास ।

ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि ॥

कहे ‘कबीर’ जे उदकि समान, ते नहिं मुए हमारे जान ।


-कबीरदास

उस-उस राही को धन्यवाद (शिवमंगल सिंह सुमन)

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।
जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं,
सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं।
दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रसाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।
साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई,
दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई।
पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।
जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर?
मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर।
इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।
कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल अंतर?
कैसे चल पाता यदि मिलते, चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर!
आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गये व्यथा का जो प्रसाद –
जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद।

– शिवमंगल सिंह सुमन

Monday 13 April 2015

Direction ( Lao Tsu)



(Photo "Water of Ten Directions" by John Daido Loori )

The ancient masters were wise and subtle.
Their wisdom was profoundly deep.
They were careful
as one crossing an iced-over stream.

Alert as a warrior in enemy territory.
Courteous as a guest.
Fluid as melting ice.
Shapable as a block of wood.
Receptive as a valley.
Clear as a glass of water.

Do you have the patience to wait
till the mud settles and the water is clear?
Can you remain without reaction
till the right action arises by itself?

The wise do not seek fulfillment.
Not seeking, not expecting,
one who is fully present, welcomes all things.

~Lao Tsu
Tao Te Ching, Verse 15

Sunday 12 April 2015

THE GUEST HOUSE (Rumi)



This being human is a guest house.

Every morning a new arrival.

A joy, a depression, a meanness,
some momentary awareness comes
as an unexpected visitor.

Welcome and entertain them all!
Even if they are a crowd of sorrows,
who violently sweep your house
empty of its furniture,
still, treat each guest honorably.
He may be clearing you out
for some new delight.

The dark thought, the shame, the malice.
meet them at the door laughing and invite them in.

Be grateful for whatever comes.
because each has been sent
as a guide from beyond.

-- Jelaluddin Rumi,
translation by Coleman Barks

किताब-ए-जिंदगी




कहाँ पहुंचेंगे या के अंधेरो में कब तलक यूँ  भटकेंगे
ये नुक्ते कुछ अजीब है, लिखे काफ़िये भी अजीब है
.
गीत गाती कभी गुनगुनाती ओ गुदगुदाती जाती है
खुशनुमा महकती बगिया बला की रौशनी बिखेरती
.
तो कभी मद्धिम जुगनू सी टिमटिम करती जाती है
ये जो जिंदगी का साज़ है इसके अपने ही सुरताल है
.
इसके साज़ जुदाजुदा उनकी बंदिशआलाप जुदाजुदा
लिखे बोलो के सुरों पे बजते साज खुद नृत्य करते है
.
यहाँ रहते सभी दर्शक कलाकार औ नर्तक कहलाते है
सलीबों में बंधे नसीबो की दास्ताने जुदा जुदा होती है
.
कभी दोस्त कभी रकीब कभी हमनशीं कभी अदीब है
किताब-ए-जिंदगी कोरे से शुरु , कोरे पे ख़त्म होती है

Om Pranam

*सलीब- Burden on back
*नसीब- Destiny / Luck
*रकीब - Rival
*हमनशीं - Beloved / lover
*अदीब - Scholar / Soul urge spiritually

Saturday 11 April 2015

stop noisy quarrel





What to lose ! or 
what to gain, to emptiness
the pot is filled with divine Ocean 
.
on darkest path
walking upon direction
if appears lights, its all yours.
.
who says what
no matter now to me
trust receives what suitable to subtle .
.
in the sequence
all along getting valued
waste churning on who are generator .
.
feet feels soft soil
heart feels fragrance divine
rest shut-up mind, stop noisy quarrel .

जनमत साथ न जाए (Dedicated to Saint Kabira)


एक धार पे ज्ञान टिका, तो दूजे पे अज्ञान
          बीच में कुटिया छायी के, संत करे विश्राम !lata

कबीरा खड़ा बाजार में  मांगे सबकी खैर 
ना काहु से दोस्ती, भाई ! ना काहु से बैर 
.
भाई ! न काहु से बैरअकेले चले सब राही 
डेरा ये बाजार का यहाँ खड़ा हुआ न जाये 
.
खड़ा हुआ न जाए कि चहु ओर शोर भरा
कौन सुने ओ किसकी नशे में धुत्त सब है
.
नशे में धुत्त सब थामे अपनी अपनी हाला 
कहते महा अवधूता ज्ञानी , उठ अब जाग
.
उठ अब जाग माया महाठगनी हम जानी 
गए ठगा बनाये ठिकाना, बीच बाजार मा 

बीच बाजार मा बनाये, खड़े रहे चिल्लाय 
सुनभइ दुइ पाटन बिच बाकी रहा न कोई
.
बाकि रहा न कोई तनी सुध धर ले अपनी 
सुन चातक कमल बिच बैठ बना ठिकाना
.
कमल बिच बैठ बना ठिकाना लगा ध्यान 
इक अकेला एकमत,जनमत साथ न जाए

Friday 3 April 2015

न मैं था न तू , फिर क्या देखा !



नजर भर इकबार खुदको देखा 
बे-इंतिहा खुद को जी भर देखा 
इस पार उस पार खुद को देखा !
.
वो ही झिलमिलाता अर्श देखा 
इस केंद्र से उस केंद्र से जुड़ के 
उड़ानों में उड़ान का रेशा देखा !
.
गहराइयों में गहराई से मिलके
कण कण में मिश्रित ओजवान 
सूरज "जर्रा" सा चमकता देखा !
.
टूटे तारे सा गुम हुआ वो द्वैत
सत्य एकात्म आत्मसात हुआ 
न मैं था न तू , फिर क्या देखा !

धागों में गुथ रेशा हुआ


जल में कूद तैरता मछली बना 
बहती हवाओं में उड़ा पक्षी बन
कभी उसी के डैनों में जा गिरा 
मौसमी पकते कपासी खेतों के
उड़ते धागों में गुथ के रेशा हुआ 
.
कभी नदी कभी पर्वत जा पहुंचा 
कभी खायी कभी चोटी पे टिका 
व्योम की ऊँची छलांग लेते हुए 
कभी सूर्य से छिटकती गर्म धूप 
कभी चन्द्रमा की चन्द्रिका हुआ  
.
बीज बन जा बैठा गर्भस्थली में 
तो कभी मर्मस्थली में जा छिप 
रक्त बन मिल शिराओं में बहा
सत्यार्थ पीछे भगता हुआ योगी 
कभी अँधा कभी दृष्टिवान हुआ

सूर्यमुखी "वो "


कब हुई भोर और साँझ हो गयी 
बिन मेघ के निर्झरवृष्टि हो गयी
कह-सुन वो मौन हो गयी, आनंद मंगल धार हो गयी !
.
बीज से कोमल सूर्य मुखी खिल 
पुनः बीजों की स्वामिनी हो गयी 
सूर्यकिरण के पड़ते ही वो, प्रेमालिंगन योग्य हो गयी !
.
आतीजाती श्वांस संग समर्पित 
अर्पित होती कब गिरी भूमि पे 
सम्भावना बीज फैलाती, कब प्रिय रंग ; संग हो गयी !
.
नव जन्मित कब करवट बदलती 
मृदु धरती कब परिपक्व हो गयी 
चेतन ऊर्जा शक्ति ऊर्ध्वमुख देहभार से मुक्त हो गयी !

योगी का योग


छाये घन व्योम प्रचंड तमस के आलिंगन में
चमकती तड़ित रेख लहरा के खो जाती 
उसकी गंभीर सघन गर्जन आवाज़ धरा की 
दारुण ख़ामोशी पलभर को देती है चीर!
.
सकल अँधेरे में टिमटिम तारे मद्धिम शांत 
ज्यूँ ऋषि कुल संयम का परिचय देते 
प्रेमगीत गाते धरा पे कुसुमित पल्लव उपवन 
कहता जाता पंक में जीता पंकज-कुल !
.
चक्रवात सदृश उर्जाये अनेक चक्करों में बंधी 
कहती या गति हो तुम अथवा मिटटी
तपस नहीं नाम आकार उपाधि सम्मान कोई 
जीवन-पथ पे संयम ही योगी का योग !

मंजिले और भी है


रे मंडूक ! कुँए से निकल नभ देख सही
अँधेरे में घुला उजाला, उतना ही नहीं है 
सूर्य के दामन में भरी किरणे बेपनाह है 
.
अपनी शर्त पे रौशनी को बांधना छोड़ दे 
अपनी नजरो में नजारों को कैद न कर 
अपनी भाव सीमा को कैद न कर छोड़ दे 
.
गहराईऊंचाई का दिमागी हिसाब न रख 
देह धरती से जुड़ नीचे को खींचती तो है 
उन्नत उठती है ऊर्जा,अंतरिक्ष अगाध है
.

अधूरापन भाव का

कह कह के किञ्चित न कहा गया
अधूरापन भाव का 
.
लिख लिख रंचमात्र  न लिखा गया 
अधूरापन लेखनी का 
.
भाव अभिव्यक्त अनभिव्यक्त 
वह काव्य कवि का 
.
पूर्ण संगीत जो सुरों में सदैव अपूर्ण 
रचना संगीतकार की 
.
चित्र अथक प्रयासयुक्त रेखाविहीन 
बेरंग रंग चित्रकार के 
.
वाक्चातुर्य गुरुग्रंथों में बंध सांकेतिक 
निःशब्द हुए मर्म छू के

Lyrics of Soul




Song of Soul ,
sometime sung sometime not 
.
The lyrics , 
may understand few may not 
.
The voice , 
some may like some may not , 
.
The music, 
some may like some may not 
.
The movie ,
some may like some may not 
.
The  group,
some may  like some may not 
.
The medium 
some may like , some may not 
.
On The path, 
some may walk some may not 
.
The Frequencies  
some time touch some time not

यूँ सफर अपना पूरा करते गए



शम्मा जलती रही
वख्त गुजरता रहा
लौ थरथराती रही
कुछ पिघलता रहा
और सुलगता रहा
नैन नम होते गए
रौशनी और रौशन होती गयी
.
सुबह होती रही
शाम ढलती रही
वख्त बहता रहा
सूरज उगता रहा
चाँद चमकता रहा
इक सोना पहनाता
दूजा चांदी से नहलाता गया
.
तारे टिमटिमाते रहे
इशारा वो देता रहा
खामोश देखते रहे
पल पल बिना रुके
वो जाम भरता रहा
घूंट - घूंट पीते गए
यूँ जीते गए , मुस्कराते गए
.
हम मुस्कराये ही बस
वो खिलखिलाता गया
कागज की इक कश्ती
समंदर में डोलती रही
वजूद "पंख" होता रहा
सब रंग सुर्ख होते रहे
यूँ सफर अपना पूरा करते गए

मुझ में मौन रहता है ...


बहुत शोर उठता है
भीड़ में  दुकानों में
इस एक , कोने में
मुझ में मौन रहता है ...
.
कशिश,शिद्धत से
हाथ थामो तो सही
जीवन तरंगित सा
मुझे महसूस होता है ...
.
कह के न कह पाया
रुका वख्त इस पल
गहननिस्तब्धता में
मधु सदृश उतरता है …
.

खामोश सदाये


खंडहर सुनाते है कहानियां अपनी बीती 
सुन पाओ तो सुन लेना, खामोश सदाये
.
ढलता-उगता सूरज समेटे कितनी गाथा
जीर्णवृक्ष पाश में सम्भली ढहती दीवालें
.
कभी लोग रहते थे यहां शानो-शौकत से
सन्नाटे गूंजते है, कहने लगी झड़ती ईंटें
.
नवाबी शान शौकत इमारतें गुलजार थी
रुकते-घूमते-गुजर जाते है जहाँ शौक़ीन
.
ख्वाहिश रंजिशों जज्बात ये ताना बाना
कुलबुलाहट का अगरबत्ती सा ..सुलगना
.
इंसानी फितरत समझके नासमझ होना
जिए जाते यूँ ज्यूँ जाना नहीं यहाँसे कभी
.
इतिह्रास आज को द्रौपदीचीर उढ़ाता रहा
गहनमौन वर्तमान भविष्य भी ठगासा है

आह्वान अद्वैत का



आओ ! तरंगो से सजें हम 
लहरें खेलें अठखेलियां 
नैया पे बैठे  डोलें हम............
.
आओ ! नदिया से रहें हम
बूंदों में मिल चंचल से
विद्युत बन बहे हम.............
.
आओ ! बौछारों में बसें हम
बहतेबहते धारा बन पुनः
सागर से जा मिले हम...........
.
आओ ! स्वपहचान बने हम
आह्वान द्वित्व-खडिंत
अद्वैतरथ पे सवार हम ...........

तेरा न मेरा



 चुन चुन तिनका बनाया बसेरा
पल पल जुड़ गुथा ताना बाना !

.
क्षण क्षण जोड़ नेहधागा बांधा 
अनूठा महल देवप्रेम से नहाया !


.
तरंगित तरंग में डूबा दिल-डेरा
विचार जनित गृह तेरा न मेरा !


The Flawlessness

it's a true nature of flawlessness
stone sand flows with clean water ..
.
some rubbing some smashing and
lagoon of heart finally get set in down ...
.
or throw away through powerful waves
wise finds always clean water deep-inside

Translation :-

यह शुचिता का स्वभाव है
पत्थर रेत साफ पानी के साथ बहती है

कुछ रगड़ना कुछ मसलना और
स्वक्छ जल का स्त्रोत अन्तस्तम में स्थित

या शक्तिशाली तरंगों के माध्यम से दूर फेंक
बुद्धिमान हमेशा साफ पानी गहरे अंदर पाता है 

Wednesday 1 April 2015

मुझे भ्रम होता है

अजीब है ज़िंदगी !


भ्रम  का अथाह  सागर 
आस्था  की छोटी  नाव में बैठ 
प्रेमलहरों में हिचकोले खाता हुआ -
छाया भासित प्रियतम  के पीछे  
मृगमरीचिका सी गंध पीछे  भागता तो हूँ !

भ्रम  की  इस  नगरी  में
भ्रमों के   साथ  ही  भ्रमित जीता-
भ्रमो  के  साथ ही पुनः सो  जाता तो  हूँ !

कुछ भ्रमों  की खातिर  फिर-
स्वप्नों   से सुबह जागता  हूँ , या  के
कुछ जागा सा दिखता तो हूँ 
कुछ सोया  हुआ  भी जरूर रहता तो  हूँ !

किसी  सच  का फैसला
एकतरफा  हो  भी  तो  कैसे  हो
या  तो   दोनों  सिरों  पे  सच  है
या फिर भ्रम ही भ्रम  का  साया  है !

भ्रम  जो सबमे  प्रकाश  दिखता है
मुझमें  जैसा ही कोई  सबमें  रहता है 
तुला का आधार बना मुझ जैसा 
कसौटी पे खुद को जरूर कसता  तो है !

हर  कोई अधीर मुझ  सा लगता 
दिव्यता  का  दिया सभी में जलता तो  है
सभी  में  शीतल जलधार  का सोता  है
भ्रम की हर एक की पीड़ा में 
आस का दीप एक सा जलता  तो है !

पल  भर  में सब में से  होके
सब को खुद में  समाना चाहता  हूँ
इस तरह  खुद को ही मैं
हर बार रत्ती रत्ती करता  तो हूँ !

बेवकूफ बनने की ख़ातिर ही
सब तरफ अपने को लिये-लिये फिरता हूँ,
लेने  देने  का नाम  अध्यात्म  गुरु शिष्य 
और यह देख-देख बड़ा मज़ा आता है
कि मैं बार  बार खुद से ही  ठगा जाता तो  हूँ !

मेरे ही हृदय में प्रसन्नचित्त 
एक मूर्खानंद  बैठा है
हंस-हंसकर अश्रुपूर्ण द्रवित कृतज्ञ सा
ध्यानी खुद में सूफी मत्त हुआ जाता  तो  है !


( प्रेरणा कवि गजानन माधव मुक्तिबोध से )