Friday 30 September 2016

देखा है !

जिनके तार उलझउलझ के गुच्छा हो गए
बढ़ते हुए पेचोखम उलझ पेंच हुई जिंदगी 

अब सुलझाने की सूरत समझ आती नहीं
कर्म के कांडों में उन्हें ही उलझते देखा है 

बात न मेरी न तेरी न मजहब न सियासत
सारी कौम को बस यूँ ही भटकते देखा है

सिखाओगे क्या उन्हें ! उन अनर्थों के अर्थ
दलदल में पैदा हो वे उसी में फ़ना हो गए 

ख्वाहिशें जिन्दा रखने की हसरत जिनकी
सीखनेसिखाने में नकाम उन्हीको देखा है 

जिंदगी लंबी सही ये नन्ही है नाजुक बहुत
कसमसाते बुदबुदे को ; बुदबुदाते देखा है
copyright of 
Lata Tewari
30-09-16

Saturday 24 September 2016

लघु कथा काव्य "रोज की तरह"


रोज की तरह 
भाप ; मद्धम मद्धम 
ऊपर को उठ रही थी
तीन दल की नाजुक
तुलसी की सुगंध
जतन से चाय में बसी थी
थोड़ा भी ढक्कन या उबाल
इधर उधर ; तो सुगंध छू
ऐसी बेशकीमती वो
सुबह की चाय ..!
और दो कप रक्खे पास पास ,
एक छोटा एक बड़ा ,
सालों की आदत
ऐसे ही प्राकर्तिक मनस्थिति से
अलग अलग आकार के
कप में चाय पीने की ,
आदतन,
सुबह की शांति ,
चाय का पतीला और
छन्नी हाथ में ,
ताजे ताजे कप धो के ,
चौके के स्लैब पे थे
और चाय उड़ेलना शुरू हो गया,
कि मन सालो के
क्यों , कैसे , कब , में उड़ चला
सेकेण्ड से भी कम का वख्त बीत होगा
चौंक के वापिस आया ,
देखा ! चाय छोटे कप से बाहर निकल
स्लैब पे बिखर पास रखे
बड़े कप की तरफ बढ़ के
उसको भी अधिकृत कर रही थी ,
मजे की बात
वो छोटा कप अभी आधा ही भरा था
फिर भी छलक रहा था ,
बड़ा कप खाली ही था

ढलान की धार संतुलन में कहाँ  !
तरल का सरल काज बहना फैलना
सो उसकी तली में ही -
उसका बिखरना शुरू हो गया
जब थोड़ी चाय बिखर गयी
तो  तन्द्रायुक्त मन सहज चौंका ,
उस पतीले को पास रख
स्पॉन्ज के कपडे को
गीली स्लैब पे रख, 
कप हटाये
आदतन ; एक इधर रखा एक उधर
बिना सोचे यांत्रिक तौर पे

एक इस कोने दूजा उस कोने पे 
स्वतः दूर दूर स्थापित , फिर -
फैली चाय सोख्ता कपडे से
तुरंत साफ़ हो गयी , वो स्लैब
फिर से वैसा का वैसा साफ़ हो गया ,

बेतरतीब से यूँ ही दूर-दूर रखे
उन कप को फिर से संयोजित कर 

दोबारा बची चाय उड़ेली
सुंदर ढंग से ट्रे में रक्खी ,
और वो ले के गयी तो
कनखी से एकनजर देखा ,
बिस्तर पे वो आधे लेटे ,
तकिया का ढोक लगाए थे
आँखे बंद मर्मर सी ख़र्राटे
सुन; पास चाय रख - ढक के
कमरे से बाहर आ गयी , पर
इस चाय बनाने गिरने साफ़ करने
और दुबारा सजावट के साथ परोसने
की समूची प्रक्रिया में
एक बड़ी उलझी जल-गुत्थी को
बहाव की कड़ी मिल गयी
कहावत याद कर उसके अधर पे
मौन-मुस्कराहट भी आ गयी ~ " रायता
जब भी जिस कारन से भी -
फैलता है तो खुद ही सावधानी
से बटोरना भी पड़ता है "
और दूसरी बात ~
" स्त्री का चौका एक रहस्य से भरा
छोटा सा निहायत निजी
उसका अपना कोना है ,
जिसमे अनेक रहस्य
वास करते है ,
स्त्री के मित्र है
इतने करीब की वो
कभी उनको उजागर नहीं होने देती ,
इसी में उन रहस्य
और उस स्त्री का
अनुपम सौंदर्य बरक़रार है ,
वे भी उसके सच्चे मित्र है ,

यथा-शक्ति , कथा-अनुसार
तथा सभी तरंगित मिलजुलकर
मदद करते ही रहते है।
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written by :

Lata Tewari
25/09/2016,8am

Tuesday 20 September 2016

हाँ ! मैंने जिंदगी देखी है-


आस से भरी ,नम सुनी आँखों में
उम्मीद किरण सांस बन धड़कती देखी है
हाँ मैंने जिंदगी देखी है।
जो सब के बीच कहते न थकते थे
जिंदगी है इक मौत रुपी गीत का फलसफा
कंपती उनकी भी लौ देखी है।
छलनी जिगर ख़ाली हाथ रहे उनके
मसौदे लक्कड़ पे धुआं सुंघती रही फुँकनी
हाँ मैंने जिंदगी देखी है।
रहस्य घाटी में घर बने जिनके भी
पखेरू उड़ा शाख़ बरसों थरथराती देखी है
हाँ मैंने जिंदगी देखी है।

copyright of 
Lata Tewari
3;17pm
20-09-2016

Saturday 3 September 2016

आ गए तुम? by Nidhi Saxena

आ गए तुम?



आ गए तुम?
द्वार खुला है, अंदर आओ..!
पर तनिक ठहरो..
ड्योढी पर पड़े पायदान पर,
अपना अहं झाड़ आना..!
मधुमालती लिपटी है मुंडेर से,
अपनी नाराज़गी वहीं उड़ेल आना..!
तुलसी के क्यारे में,
मन की चटकन चढ़ा आना..!

अपनी व्यस्ततायें, बाहर खूंटी पर ही टांग आना..!
जूतों संग, हर नकारात्मकता उतार आना..!
बाहर किलोलते बच्चों से,
थोड़ी शरारत माँग लाना..!

वो गुलाब के गमले में, मुस्कान लगी है..
तोड़ कर पहन आना..!
लाओ, अपनी उलझनें मुझे थमा दो..
तुम्हारी थकान पर, मनुहारों का पंखा झुला दूँ..!

देखो, शाम बिछाई है मैंने,
सूरज क्षितिज पर बाँधा है,
लाली छिड़की है नभ पर..!

प्रेम और विश्वास की मद्धम आंच पर, चाय चढ़ाई है,
घूँट घूँट पीना..!
सुनो, इतना मुश्किल भी नहीं हैं जीना..!!

Poetry written by Nidhi Saxena Not Mahashweta Devi Ji my apologies