Monday, 1 September 2014

गुस्ताखियों से तौबा !




तनमन से चलते रहना सीखा अबतक
बैठने  का शऊर  कभी  आया  ही  नहीं
कुछ  देर  बैठते  खुद से भी  मिल लेते
तुमसे  ना मिलने के शिकवे नहीं  होते

तेरी तलाश  में  कहाँ-कहाँ  नहीं भटके
पानी में  रह के  भी भीगना नहीं सीखे
इश्क की मिटटी से  पैदा  हो करके भी 
इश्क  के  बेहतरीन  हुनर   नही  सीखे 

हवाओं  के छूते ही हम खुश होते तो थे 
उन हवाओं  के पार हो जाना नहीं सीखे 
नाच नाचते  रहे हम मक्का मदीना में
अभ्र से रश्क है उन सा होना नहीं सीखे

तंत्र मन्त्र  योग में महारथ हासिल की
गुरु  आज्ञा पा, पत्थर घिस-घिस पूजा
दिए  की  बाती में  ज्ञान-घी खूब डाला
गृह-होम में  चिंगारी  लगाना भूल गए

भला है ! वख्त की धार अभी  बाकी है
साँसों  की डोर  का साथ अभी बाकि है
चिंगारियों  की हवा देना बस  बाकि है
दिल की दौलत  लूटाना  बस  बाकी है

प्रिय  वट-वृक्ष  की घनी छाँव है नाजिर
कल  रात  उस  नदी  के किनारे पे  बैठ
भोर  के  डूबते   आखिरी  तारे  को देख
सारी  गुस्ताखियों  से तौबा  कर ली है



" आत्म ज्ञान  स्थति , जैसा हम कहते  है कुछ पाना नहीं है  ना  ही कहीं पहुंचना  है जो बहुत  दूर और  दुर्लभ  है  वरन  जो सदा  से  तुम  ही हो और  तुम्हारे  पास  ही है  इसको जान लेना  ही आत्म ज्ञान अथवा आत्म जागरण , और अन्य ज्यादा कुछ  न  जानना हमें  सब कुछ  बना देता  है। यदि यह  आभास   जाता है की हम खुद को  बाहर  कैसे ढूंढेंगे ,  हम  है !  और इस  स्थति  अनुभव  किया जा  सकता  है , बताया नहीं जा  सकता। "

“The state of Self-realization, as we call it, is not attaining something new or reaching some goal which is far away, but simply being that which you always are and which you always have been. The state we call realization is simply being oneself, not knowing anything or becoming anything. If one has realized, one is that alone which ‘is’ and which alone has always been. One cannot describe that state. One can  only be that.”

 ~Ramana Maharshi


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