Sunday, 7 September 2014

मैं पूर्ण नदी




जन्म से मृत्यु की साक्षी बन स्वयं की 
टुकड़ों बहती जिंदगी और  मैं  सम्पूर्ण 


साथ अनवरत  किनारो की मिटटी  का 
पत्थर  बदलते गए और मैं बहती गयी 


जन्म के साथी पीछे है आज साथ नहीं 
मध्य में है प्रारब्ध से वो परिचित नहीं 


मध्य के उपरांत जो  आ मिले भाग्य से 
प्रारम्भ और मध्यान्ह से परिचित नहीं 


अंजान सब मुझसे उद्गम से अंत तक 
साक्षी हूँ मात्र एक  मैं स्वसम्पूर्णता की 


मूल स्रोत से जन्मी निर्झर  झरना बनी
उन्मत्त अठखेलियां करती खेलतीबहती 


मध्यान्ह लावण्या लाजवन्ती शांत हुई 
गहराईयों ! जन्म देने को मैं तैयार हुई 


बढ़ती गंतव्य को पल-पल बहती जाती 
कही जीर्ण  कहीं रुग्ण हुई , मै इक नदी 


गोमुख   में  जन्मी , गंगोत्री बाल्या हुई ,
उत्तरकाशी  में नव-यौवना उन्मुक्त हुई 


ऋषिकेश  में लावण्या लहराई  इठलाई 
विवाहिता हरिद्वार से विदा लेआगेबही   


प्रौढ़ा हुई काशी तक और गहरी हो चली 
चलीपड़ी अंतिम विश्राम गंगासागर को 


जिस तट पे तुम आल्हादित ठहरे रुके 
डुबकी लगायी एक नाम से बाँध दिया


जाना तुमने उतना टुकड़ा परिचय मेरा 
क्या  इतना  ही संकीर्ण  विस्तार  मेरा !  


आह! मध्यान्ह से समापन को अब बढ़ी 
उथला था उद्गम गहरा समंदरअंत मेरा   


समय पल के जिस प्रहर में जो जहाँ जुड़े 
मानते उसको ही सही और मैं बहती नदी 


कर्मभूमि मेरी ये धरती  सींचती हूँ जलसे 
फिर अप्रकट हो आस्मां से  उतरूंगी  पुनः 


शिव आह्वाहन कर  जटाओं में संभालेंगे 
कथा दोहराती अवतरित होउंगी धरती पे 


जन्म  से  मृत्यु  की  साक्षी  बन स्वयं की 
टुकड़ों में बहती  जिंदगी और मैं  पूर्ण नदी 


No comments:

Post a Comment