Wednesday, 10 September 2014

यूँ ही



मंदर की इक जल बूँद हो या 
कोई आकाशगंगा के  रेत-कण 
फिसलते जा रहे हम तुम यूँ ही 
समय के साथ पत्ते से बहे जाते हम यूँ ही 

जन्म-मृत्यु तेरा ना कोई कारन
और ना कोई नियोजन और हम 
तेरी डोर में बंध हुए अशक्त यूँही 
समय के साथ पत्ते से बहे जाते हम यूँ ही 

न्म ले यूँ हीं, कर्म किया यूँ ही 
सुखदुःख समस्त भोग भी यूँ ही 
तनमन की पीड़ा को सहते यूँ ही 
समय के साथ पत्ते से बहे जाते हम यूँ ही 

जिसने जो कहाँ मान लिया यूँ ही 
थोड़ा बुद्धि  को खर्च किया यूँ ही 
कितना  हिसाब  रखते  हम यूँ ही 
समय के साथ पत्ते से बहे जाते हम यूँ ही 

कुछ बीता कुछ बाकी  बीतने को  
आजकी सुई पे नाच नाचते यूँ ही 
खुदसूली पे टंगे दुआ मांगते यूँ ही 
समय के साथ पत्ते से बहे जाते हम यूँ ही 




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