कहीं दूर ज्यूँ आस्मा में बिजली कौंधती हो
पानी पे मिलती बिछड्ती लहरे मचलती हो
कही ज्यूँ तेज आंधिया उड़ाए लिए जाती हो
कैसे सब कह पाओगे! जो महसूस किया है
शब्द निकम्मे अर्थहीन-अर्थ बखूबी कहते
अर्थ की बातचली प्रथम वे ही साथ छोड़चले
भाषा नगरी में मौन की बात कौन समझेगा
तुम्हारी मेरी भाषा में शामिल मैं और तुम
रंगमंच सी दुनिया में बसते है अदाकार लोग
फिर कहते सब मिल नाटक क्यूँ करते लोग
सहज सितारों,सुंगधित पुष्पों, बहती हवाओं
अंगारे उगलते ज्वालामुखी, भूकम्प ,तूफ़ान
ऊँचेऊँचे समुद्रीतूफान,कड़कडाती बिजलियाँ
टूटतीपर्वतशिलाये,पिघलतीबर्फजलराशियां
कौन ठिकाना इनका क्यूँ कर जन्मे धरा पे!
कब तक रह पाएंगे कब उखड राख हो जायें
क्यूँ ये गर्वित ! कहाँ राज्य करना उन्मादी!
समझाने का कार्य बखूबी तुम्हे करना,कृष्णा
शिव समझाते नहीं, मालूम है ना सब तुमको!
अज्ञानी बालक, होते समान अबोध निर्बोध
मदांध कैसे मद मुक्त, रोगी कैसे स्वस्थ हो !
जीवन मात्र नाटक सदृश जीने योग्य रहेगा
हर बार अंधकुंए में गिरने को दिल न करेगा
एकबार भूले से इनकी भूली यादे वापिस आये
निश्चित इस रंगमंच में,आत्मा ना खो पायेगी
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