प्रिय पुरुष ! चिठी तुम्हारे नाम की
लिखने को बहुत कुछ है,शब्द नहीं !
भूली तुम्हे , याद बिसार दुखी थी
आशीष स्नेह पुनः पा ,धन्य हुई
बुद्धि संग खूब खेले उलझते गये
समझे न रंच,"बृहत" मर्म का अर्थ
प्रेम से तुमने " किया-कहा-दिया "
वानर सदृश , धज्जियाँ उड़ा डाली
अर्ध समझ तर्क से शास्त्र बन गए
सच मान गर्वित इतरा गए थे हम
विदुःविद्योत्तमा समक्ष पंडितों ने
तर्क से मूर्ख को ज्ञानी बना दिया
रामभेंट तोड़ी भक्त ने नामदर्श को
उन हनुमान पे बिनभाव छंदबनाये
प्रतीक को प्रतीक न रख चरित्र बना
डूबे कंठ तक नकली ख़ुशी के लिए
मानुष मूर्खता का क्या करें बखान
खुदी की मूर्खता , खुद ही इतरा रहे
भ्रम था , भ्रम को भ्रम मारता कैसे
पुनःपुनः स्वजन्म हो होता ही गया
तुम्हारे ही चरित्रों को कर तार तार
सुविधानुसार बुद्धिनुसार जीते गए
तरंग गाथा सुनी तेरी , तत्विक बन
तेरेमेरेबीच तरंग बन बारबार कौंधा
तुझसे ही सीख अलग विषय बनाये
तुझीपे अमृतभासितविष छींट दिया
वाह बुद्धि छलना द्वित्व में जीती है
ये तन ज्यूँ एक,वो तन ब्रह्माण्ड एक
हम अंतर्मन का युद्ध करे तो योगी ,
वे स्वतन ब्रह्माण्ड में युद्ध करे तो...!
हम अंदर रक्तबीज मारे योगी कहते
वे स्वतन के जरासंध को मारे तो......!
पीड़ा हमारे जख्मी अंग भी तो देते है
हमसबमें देवता-दानव दोनों पलते है
उपाय हमको भी सहज करने पड़ते है
अंग में जहर फैले तो काटने पड़ते है
ब्रह्माण्ड-तन प्रियतम का रूपमोहक
त्रिदेव तीन समाये"१"शक्तिशाली वो
प्रिय पुरुष, तरंग किरण आज छूती है
नसों में लहूबन बिजली सी कौंधती है
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