Friday, 5 September 2014

सच




सच का आईना भी क्या आईना है 
जब भी देखो उल्टा दिखाई देता है 

नींद में अभी है या के जागे हुए है
ये कैसा नशा कुछ खबर ही नहीं है

सारी उम्र जागते हुए तो काटी थी
दिन रात चक्की में हम ही घूमे थे

फिर कौन है जो उठने को कहता है
बहुत सो चुके ये जागने की बेला है

वो क्या था जो जागते बिताया था
बरसो सोये नहीं इन्ही कोशिशों में

वे सब परछाईयों से क्यों दीखते है
जिनके पीछे जिंदगी तमाम की थी


इक हम ही नहीं और भी यही लोग 
सोचते बिनउनके आस्मां लुढ़केगा 

राख में तब्दील  माटी में जा मिले 
कैसी नींद की खुमारी उतरी ही नहीं 

इस वख्त फिर ऐसा क्यों लगता है
जैसे ताउम्र बिता दी हो सोते सोते

धुँधलाता क्यों जा रहा है सच मेरा
धुंधला था वो साफ होता जा रहा है



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