सच का आईना भी क्या आईना है
जब भी देखो उल्टा दिखाई देता है
नींद में अभी है या के जागे हुए है
ये कैसा नशा कुछ खबर ही नहीं है
सारी उम्र जागते हुए तो काटी थी
दिन रात चक्की में हम ही घूमे थे
फिर कौन है जो उठने को कहता है
बहुत सो चुके ये जागने की बेला है
वो क्या था जो जागते बिताया था
बरसो सोये नहीं इन्ही कोशिशों में
वे सब परछाईयों से क्यों दीखते है
जिनके पीछे जिंदगी तमाम की थी
इक हम ही नहीं और भी यही लोग
सोचते बिनउनके आस्मां लुढ़केगा
राख में तब्दील माटी में जा मिले
कैसी नींद की खुमारी उतरी ही नहीं
इस वख्त फिर ऐसा क्यों लगता है
जैसे ताउम्र बिता दी हो सोते सोते
धुँधलाता क्यों जा रहा है सच मेरा
धुंधला था वो साफ होता जा रहा है
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