( भाव रुपी ह्रदय और तर्क रुपी बुद्धि के बीच वार्तालाप के अंश )
आज दिल एक बार फिर मायूस हुआ क्या कुछ नहीं तुमको सिखाया था ,
वो तुम ही तो थे जिसने ये मुझको सूचित करते हुए कि
कुछ भी तो नया नहीं , खुद को बहुत ज्ञानी समझते हो !
वो ही ज्ञान बार बार दोहराया भी था ....
तुमने ही तो कहा था की तुमको किसी भी ज्ञानवान से कहीं ज्यादा पता है !!
धोखा हुआ मुझे की शायद तुमको सब पता है
मुझे लगा था कि तुम सीख गए हो
तर्क को छोड़
दुनिया को छोड़
दिमाग को छोड़
प्रपंच को तोड़
दिल ओ मन के धोखे से और
अपने ही मन के तूफ़ानो से पार हो चुके हो तुम !!
पर नहीं ; तुमने खुद को जकड़ा, अपने प्रिए को पकड़ा
अपनी जिंदगी को तो नहीं ही बक्शा .... प्रिय की जिंदगी को भी नहीं बक्शा !!
तुम तो बहुत समझदार थे ;दस दस पे अपने तर्कों से भारी थे
पर तुमने वो ही किया जो तुम्हारे दिमाग में पहले से सुप्त गुप्त भरा था
फिर, वो क्या था ! जो पाठ मैंने तुमको समझाया था
और तुमने ठीक वैसे ही सब रट्टू तोते की तरह दोहराया था
क्या हुआ नासमझ ,
तेरी समझ को
जब आस्मां को मुठी में बांधने चले थे
मैंने कहने कि कोशिश भी की ; पर तुम तो सब जानते थे जिंदगी का कीमिया
कस के बंधी मुठी में पानी से फिसलते ओ सुखते जाते रिश्ते की दास्तान !!
ये कैसा ज्ञान है ?
ये कैसा तर्क है ?
ये कैसी माया है ?
ग्यानी के ही ज्ञान के ऊपर माया ठगनी तांडव कर गयी
तुमसे सिर्फ तुम्हारी नहीं तुम्हारे प्रिय की जिंदगी भी ले गयी
तुम्हारे तर्क बिखर गए
तुम्हारे ज्ञान_अज्ञान पे बुध्ही शर्मसार हुई
अरे नादाँ ये क्या किया ,
ये क्या किया ?
न ज्ञानी रहे
न बुद्धिमान ही रहे
दुसरो को अपने ज्ञानवान_तर्कों से चुप कराते रहते
और आज अपने ही व्यवहार से शर्मसार हो के, अंधकारों में खो गए
(written 2013 )
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" सर्वे भवन्तु सुखिनः ,
सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चित् दुःख भाग्भवेत्।। "
ॐ प्रणाम
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