कवि ! तू खुद से अनजान, परमप्रिय समय बड़ा बलवान
न तो व्यर्थ व्यथा , न ही उद्गार न ही व्यर्थ तेरे अभिसार ।।
व्यक्त भाव के साथ शांत हो तनिक ले मौन में विश्राम
भावनाए कोमल कोमल ,बनी वो उस प्रिय का श्रृंगार ।।
काव्य जो बन छंद हुए थे अनजान अश्रु बह बने वरदान
स्वप्न छलके वो छल छल- पल पल ,बने प्रीतम का हार।।
मित्र ! बन अब प्रियतम तेरे अंश का प्रेम दीपक जला पड़ा
अल्हड बंजारा मस्त हुआ मन , बार बार यही गाये जाता ।।
शांत हो... ! देख चहुँ ओर, सुवासित पवन चल रही
विचरण कर कुछ देर ठहर , तेरे अंदर शांत सरोवर है ।।
पाया तूने अंदर प्रकाशित श्वेत मोती उज्जवल सुन्दर
विष बदल बना अमृत कण , दग्ध मन शीतल शीतल ।।
खारा - खारा छोड़ के , तू बस मीठा - मीठा लूट
विचरण कर ले मन हंसा ! तेरे अंदर शांत सरोवर है ।।
ध्यान कर , ना मान कर प्रेम कर बस तू प्रेम कर
जीवन अर्थ समझ अब मानी कहती बहती जीवन धारा ।।
Below was posted on 28 May 2013 ( feels presence of negativity is in lines, did correction edition and posted again )
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