मैं सम्पूर्ण प्रकृति मे निष्चल निःशब्द अकेला
सहता हूँ...मौसम के आघात , बंधुओं के प्रहार
स्वयं से ही जन्मता जाता स्वयं से ही बढ़ता हूँ
फलता_फूलता स्वयं से, परम मौन मे रहता हूँ
खुशियोँ मे झूमता खुद को पीड़ाओं मे सहलाता
स्वयं ही दृष्टा , स्वयं भोक्ता , स्वयम ही कर्ता
सहता हूँ...मौसम के आघात , बंधुओं के प्रहार
स्वयं से ही जन्मता जाता स्वयं से ही बढ़ता हूँ
फलता_फूलता स्वयं से, परम मौन मे रहता हूँ
खुशियोँ मे झूमता खुद को पीड़ाओं मे सहलाता
स्वयं ही दृष्टा , स्वयं भोक्ता , स्वयम ही कर्ता
ब्रह्म_विष्णु_महेश समेत मुझमे समाई सृष्टि
अविचल_स्थिर खडा , कालचक्र का बन गवाह
मैं ही परं तपस्वी वृक्ष हूँ, भिक्षां लेता मात्र एक से
सीख़ जींवन क़ी देता ; गाता_मस्त_झूमता_जाता
तुम दो दिखते हो , और मुझमेँ एक हो समाये दो
कोइ अन्तर है , क्या बोलो ! संज्ञानी बन सीखों!
मुझमेँ यदि फल लगते तुममे भी तो फल लगते
मुझमेँ बीज़ उपजते गर तुममे भी तो बीज पनपते
तुम द्वैत मिल के होते पूर्ण मैं अद्वेत मे पुर्ण हुआ
तुम आधे आधे भटकते बने दो मैं संपूर्ण एक हुआ
मुझे से ही सब सीखते जाते मुझको ही भूलते जाते
भाई मुझे पहचानो ! बिलकुल तुम्हारे ही तो जैसा हूँ
कहाँ भटकते फिरते जाते, क्या कुछ नहीं ढूंढते जाते
दो पल गले_लग सुन_चुप से कहता तेरी हीं कहानी
देख मन की आँखे खोल मैं खडा समक्ष
सब कुछ कहता तुझसे मौन मे तु सुन
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