ऐसा भाव इस कविता मे है जिसमे परमात्मा का दिया सम्पूर्ण जीवन जीने के बाद भी, एक कसक सी रह गयी है जीवात्मा मे , और वो मनुहार कर रही है , अन्त समय मे . एक एक सांस के लिये याचना कर रही है जीवात्मा , अभी तो जीवन जिया ही नहीं और समाप्त हो चला , हे सखा ! थोड़ा वक्त और दे दो, जरा थोड़ा बाक़ी है उस इक्छा को भी पूरा कर लुं , फ़िर चलूँ तुम्हारे साथ , क्यूंकि भाव तो देह से ही तृप्त होंगे , अधूरी तृप्ति के साथ कैसे चलूँ ?
जीवात्मा का मनुहार :
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अथाह सौंदर्य की स्वामिनी धरती , थोड़ा जी तो लुं
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , दिया जो ज़ी भर जरा देख तो लुं
तो चलूँ ....................................................
एक एक मनके वाली साँसो को माला मे पिरो तो लुं
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , आसमान पे उङान भर तो लुं
तो चलूँ ....................................................
यहाँ नीचे चतुर सुजान माया मे लिप्त अपनी अतृप्त इक्छाओं को कहने के बाद जीव सोचता है शायद ईश्वर भक्ति की बात करू , परमात्मा से प्रेम की बात करू , कहु की भक्ति अधूरी है , समाज सेवा की बात करूँ , कर्तव्यों की दुहाई दूँ ! तो ऐसे भी चालाकी से जीव अपनी बात कहता है ...........
कितना प्रेमभरा जगत मे थोड़ा स्नेह समेट तो लुं
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , लिया बहुत अब तनिक दे तो लुं
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , प्रेम तुझपे न्योछावर कर तो लूँ
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , वो ही गीत गा जरा झूम तो लुं
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , बाकी है बहुत कुछ देख तो लुं
तो चलूँ ....................................................
कितना कुछ है बाकि करना कर्तव्यों को बीच मे छोड़
कैसे चलूँ ...................................................
थोड़ा ठहरो सखा ! थोड़े ठहरो सखा ! थोड़े ठहरो सखा !
पर परमात्मा सब जानते है , क्यों नहीं जो जीवन हाथ मे था ...... उसको जिया ? क्यों आज की कीमत नहीं समझी , हजारों जनम ऐसे ही ले चुकी जीवात्मा अँधकार मे ही सारा जीवन कौड़ी मोल चुकाने के बाद हर बार ऐसे ही अन्त समय मनुहार करती है।
ॐ ॐ ॐ
© All rights reserved
जीवात्मा का मनुहार :
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अथाह सौंदर्य की स्वामिनी धरती , थोड़ा जी तो लुं
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , दिया जो ज़ी भर जरा देख तो लुं
तो चलूँ ....................................................
एक एक मनके वाली साँसो को माला मे पिरो तो लुं
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , आसमान पे उङान भर तो लुं
तो चलूँ ....................................................
यहाँ नीचे चतुर सुजान माया मे लिप्त अपनी अतृप्त इक्छाओं को कहने के बाद जीव सोचता है शायद ईश्वर भक्ति की बात करू , परमात्मा से प्रेम की बात करू , कहु की भक्ति अधूरी है , समाज सेवा की बात करूँ , कर्तव्यों की दुहाई दूँ ! तो ऐसे भी चालाकी से जीव अपनी बात कहता है ...........
कितना प्रेमभरा जगत मे थोड़ा स्नेह समेट तो लुं
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , लिया बहुत अब तनिक दे तो लुं
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , प्रेम तुझपे न्योछावर कर तो लूँ
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , वो ही गीत गा जरा झूम तो लुं
तो चलूँ ....................................................
जरा ठहरो सखा , बाकी है बहुत कुछ देख तो लुं
तो चलूँ ....................................................
कितना कुछ है बाकि करना कर्तव्यों को बीच मे छोड़
कैसे चलूँ ...................................................
थोड़ा ठहरो सखा ! थोड़े ठहरो सखा ! थोड़े ठहरो सखा !
पर परमात्मा सब जानते है , क्यों नहीं जो जीवन हाथ मे था ...... उसको जिया ? क्यों आज की कीमत नहीं समझी , हजारों जनम ऐसे ही ले चुकी जीवात्मा अँधकार मे ही सारा जीवन कौड़ी मोल चुकाने के बाद हर बार ऐसे ही अन्त समय मनुहार करती है।
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