Thursday, 22 May 2014

वक्त बह गया

वक्त अपना हिसाब ले के और दे के बह गया


कहाँ गए वो दिन ओ रात 

कहाँ गए वो  अहसास 

कहाँ गया वो खिलता बचपन 

कहाँ गए वो प्यारे हाथो  के स्पर्श 

कहाँ गए बचपन के साथी 

कहाँ गया  नवयोवन का उन्माद  

कहाँ गयी वो शर्म से बोझल पलके 

कहाँ गयी उलझी उलझी अलके 

कहाँ गया  वो कभी न ख़त्म होने वाले शब्दों-संसार ,

कहाँ गया वो अहसास ...कहाँ गया वो अहसास ..


बचपन बीता स्वर्णिम-स्वप्न  सा 

यौवन  बीता  स्वप्निल-युग सा 

वो भी सच था ... ये भी सच है 

कल भी स्वर्णिम था 

आज भी स्वर्णिम है 

वक्त अपना-अपना हिसाब 

ले के और दे के फिसल  गया 

जो रह गया ... वो रह गया ; 

जो बह गया... वो बह गया .....

प्रणाम 

 (10aug2012)
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