तेज आंधियों के मौसम में
धुल के चलते गुबार के बीच
खिड़किया दरवाजे कस के
बंद भी हो अगर तो क्या !
नाक पे रुमाल रखे हुए हम
मुह से पानी पीते ही रहे
कपड़ों पे चढ़ी झड़ती गिरती-
गर्द का उड़ना रुकता नहीं...
वक्त और जवानी का जोश
शानोशौकत में मशगूल थे
इश्क़ के रुतबे से ज्यादा
मसरूफ थे हम मशहूर थे
किला था छत दीवाल बिन
नींव की ताकत सोची नहीं
कल जहाँ जमीं थी ख़ाली
बहुमंजिला वहींपे बन गयी
दो चार मौसम ही गुजरे थे
कि पर्ते उघड गिरने लगी
दीवालोंसे रेत् झड़ने लगी
ईंटें भी मशक्कतों में लगी
एक एक बनायीं मंजिल
हमारे ही आगे गिरने लगी
कभी जख्मी हुए तो कभी
लहूलुहान हम होने लगे
सहलाये अब किसका घाव
अब किसको मरहम लगाए
हम सभी तो लहूलुहान है
हम सभी वख्ती शिकार है
ऊपर की बनी मंजिले अब
आस्मां पे लटकी दिखती है
शायद मौला ने रहम कर
रहमत देकर संभल लिया
सफर का क्या कहिये !
चंद-शब्दों में सिमट गया
लम्हे थे जिनको जीने में
तमाम उम्र फ़ना हो गयी
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