"मैं " लिखती हूँ बार बार , भीगी सी रेत पर ..
( कविता का अन्तर्निहित भाव है की कुछ अज्ञात लिखने की कुछ अज्ञात समझने की अथक चेष्टा करती " I " यानिकि परम ज्ञानी पवित्र आत्मा जिसको खुद को भी पता है की , उसका लिखा ज्यादा देर तक नहीं चलने वाला , समुद्र के किनारे फैली गीली रेत पे लिखने के सामान है मनुष्य को कुछ भी समझाना फिर भी वो प्रयासरत आवरण बदल के , व्यक्तित्व बदल बदल के निरंतरता के साथ लगातार लिख रही है .... )
जानती हूँ कि मिट जायेगा शब्दों का नामो_निशाँ ,
फिर भी अनगिनत शब्दों को लिखती हूँ भीगी सी रेत पर,
बार बार लिखते हुए कभी पूरे वाक्य तो कभी कुछ शब्दों के समूह ..
बह जाते है कभी छोटी लहर कि अठखेलियो से तो कभी बड़ी लहर के आघात से ..
और मै , फिर से अपनी नन्ही उँगलियों से लिखना शुरू कर देती हूँ गीले सी रेत पर .!
2 February 2012 at 02:35 PM
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