स्वप्न के अंदर उभरते स्वप्न और पुन उसी क्रम में टूटते / खुलते स्वप्न , और जागते जीव
जीवजन्म
( प्रथम निद्रा प्रवेश ):-
( प्रथम निद्रा प्रवेश ):-
ये क्या हुआ !
आँख पहली खुली
या के
पुनः पुनःजन्म की
श्रृंखला में
पुनः दोबारा बंद हुई
जैसे ही जन्म लिया ,
आधी सोयी आधी जगी
मींजते आँख खोली
मानो बृहत् स्वप्न
के अंदर प्रवेश हुआ
सब हंस रहे थे
खुशियां मना रहे थे
हम कभी रोये और
मुस्कराये जा रहे थे
और इसके साथ ही
पिछली पीड़ा गर्भ की
स्वप्नवत भूल गए
उससे भी पिछले सारे
क्रमबद्ध जिए जन्म
स्वप्नवत भूल गए
और ले लिया इस
स्वप्न में प्रवेश
( स्वप्न के अंदर स्वप्न में प्रवेश )
माँ ने दिया प्रेम से
भरपेट स्तन पान
जल्दी लगा की नींद
आगोश में ले रही है
सोयी हुई पलके
पुनः मुंद गयी
एक और सपने में
मन गोता लगा गया
( एक और सपने में पुनः प्रवेश हुआ )
वो संसार कहाँ गया !
यहाँ तो पात्र कथा
भाव सब अलग
यहाँ के विषय अलग,
हम यहाँ खो गए
वो माँ की गोद
वो हंसना रोना
पिछला स्वप्न भूल गए
ओह !
मायानगरी का तिस्लिम
मुझ जैसे राहगीर अनेक
व्यस्त रहते कर्म करते
हँसते गाते रोते खाते
घर को लौटेते और
पुनः पुनः सो जाते
उसी निद्रा स्वप्न के -
स्वप्न के स्वप्न में
पुनः प्रवेश किया
एक और स्वप्न
जीने लगे
इन सभी स्वप्नों में
एक समान पीड़ाये ,
सुख , दुःख , कर्म ,
अनुभव होते जाते
कहते सुनते जाते ,
बंधू बांधव मिलते
और बिछड़ते जाते
सबके समय यूँ ही
गुजरते जाते
स्वप्नों की छाया में
सपने देखते देखते
सपने में ही
हम बड़े हो चले है
स्वप्नलोक के लोग
कहते है बालक थे
अब हम वयस्क है
हमारा परिवार है
जिसमे कुछ बूढ़े
और कुछ बच्चे है
अनेक सम्बन्धी है
कुछ दोस्त और
कुछ दुश्मन भी है
यूँ ही बूढ़े भी होंगे
सभी विदा लेते है
चले जाते है कभी न
लौटने के लिए
हमें भी जाना होगा
अनेक अनुभव
अनुभूतियों के साथ
स्वप्न-अंत अनुभूतियाँ :-
किन्तु ये तो मात्र
स्वप्न का अंत है
सबसे पहले देखे गए स्वप्न का अंत
स्वप्न अंत सिलसिला
भी क्रमबद्ध ही हुआ
एक झटका और
सबसे छोटा
सबसे नया स्वप्न
सबसे पहले समाप्त हुआ
हमने जाना की
जो टुटा वो सपना था
किन्तु अभी भी
हम सपने में ही है
इसका अंदाजा नहीं था
और हम पूर्ववत
समस्त ज्ञान के साथ
छोटे स्वप्न के अंदर
पुनः कर्म करने लगे
जैसे सदियों से इस
स्वप्न में रह रहे हो !
अचानक एक और
समाप्ति की सुचना
और हम उस संसार
से जाग के मानो उबरे
पाया के अपने ही
बिस्तर पे पड़े थे
नए दिन और
चाँद साँसों के लिए
भाव से "प्रभु" को
धन्यवाद दे ,
बिस्तर से उठे फिर
नहां धो के ,
नए कार्य के लिए
आशीर्वाद मांग
दैनिक कर्म में लिप्त हुए
जैसे इसको सदियों से
ऐसे ही जी रहे हो,
वो ही भूख प्यास ,
रोजी रोटी का सवाल
वो ही जर , जोरू ,
जमीन पे मल्कियत
का जाग्रत भाव
वो ही घर, वो ही
दिवाले, वो चेहरे
वो ही इंद्रियक
दर्द अंग और मन में
वो ही स्पर्धा और
वो ही तो भागमभाग
दिन ढले लौट के आते
भोजन करते
और फिर
सो जाते
साक्षी :-
साक्षी कहता
ये भी स्वप्न ही है
थोड़ा बड़ा है और
सबसे पहला है
सुन मेरे प्रिय
इस स्वप्न के क्रम भी
उन स्वप्नों जैसे ही है ,
बस , जरा अंतराल बड़ा है
युग का स्वप्न इससे भी बड़ा
ब्रह्मा का स्वप्न तो और भी बड़ा
साक्षी ने देखा
एक दिन
ईमारत की मंजिलों
ऊंचाई से
एक चींटी नीचे को
गिरते हुए
रेलिंग की कगर पे
चलने का
अनवरत प्रयास
करती हुई
एक बार फिर
लुढ़क जाती
एक तल नीचे
वही से उसी तल पे
तनिक रुक
उसी कगर पे पुनः
चलने लगती
अनजाने गंतव्य पे
बढ़ती जाती
कुछ दूर चलती और
फिर पुनः पुनः
लुढ़कती जाती और
पुनः पुनः बढ़ती
चलती जाती ,
बुद्धि नहीं थी
जो प्रश्न करती,
विषय बनाती ,
और उलझती
साक्षी उलझा
स्वयं में
बुद्धिहीन जीव
यदि सुखयुक्त
तो बुद्धि का
प्रयोजन क्या ?
संसार में जो भी
उपहार मिला
वो व्यर्थ नहीं ,
फिर बुद्धि ?
व्यर्थ इतनी पीड़ाये
क्यों सहना ?
मूल को पकड़
हर मूल के भी
मूल पे चलते
नेति नेति करते
पहुंचे अंतिम मूल पे
और ! और !
आश्चर्यजनक सर्वव्याप्त
अद्भुत उत्तर मिला !
मानव जीवन
मात्र " संतुलन "
चहुँ ओर उजागर
एक ही सत्य
बुद्धियुक्त-जागृत-संतुलन
अरे जिज्ञासु !
तुझे तो पहले ही
बिना पूछे सारे उत्तर
मिल गए थे
जिस क्षण धरती पर
डगमगाते असहाय से
स्वयं को संतुलित करते हुए
पहला कदम डाला था
किसी अनजान अनुभवी ने
तेरा नन्हा हाथ थामा था
संतुलन की श्रृंखला को
आगे बढ़ाया था
इस क्रम चक्र में
उत्तर सारे मिल गए
तेरी जिज्ञासा का था भान उसे,
प्रश्न से पूर्व ही
समाधान सारे मिल गए
संतुलन अधिकार
सम्पूर्ण चराचर में
अन्य के पास नहीं
प्रथम संतुलन
के अंदर आकाशगंगाओं
समेत अखिल ब्रह्माण्ड
संभालता वो सर्वज्ञ
दूजा संतुलन का
अधिकार मानुष तुझे
इसीलिए ईश्वर के बाद
उत्तरदायी उत्तराधिकारी तू ही
जिस प्रकार ऊर्जा-वास
से कण कण- निर्मित हुआ
ये अखित ब्रह्माण्ड
विश्व कहलाया
उसी से ऊर्जान्वित
ऊर्जायुक्त ये
स्वप्नजगत कहलाता
शांत !! सुन जरा !
उसे तनिक मौन हो
संतुलन के परम धर्म में
तू उसका दाहिना हाथ बना
मध्य खड़ा तू मानव बन
संतुलन की रस्सी पे
एक तरफ को बढ़ा
तो देव हुआ
दूजी तरफ लुढ़का
तो दानव कहलाया
परम :-
प्रकृति स्वयं को सतुलित करती जाती
मानव तू स्वयं को संतुलित करता ,
साथ ही,
स्वयं को संतुलित करती प्रकर्ति
को भी संतुलित करने में
सहयोग करना
तेरे ही जीवन का आधार
तू स्वयं संतुलित होता
दूर सौर ऊर्जाओं की शक्ति से
अलग कहाँ , सब एक ही तो है
आपसे में सब गुथम-गुथा
धर्म में , भाव में, चक्र में
शक्ति में , कर्त्तव्य में ,
सदैव स्वयं को
संतुलित करता जाता ,
फिर भी परम-असंतुलित
निजमानव धर्म भूला
कहाँ तू उलझा ?
कहाँ तू भटका ?
कौन से गुणधर्म ने
तुझे भटकाया ?
क्या तू स्वदिव्यता को जान पाया ?
कहाँ तू उलझा ?
कहाँ तू भटका ?
कौन से गुणधर्म ने
तुझे भटकाया ?
तू ही भुला अपना धर्म
कहाँ कहाँ खोया भटका
कितने विषय बना डाले
स्वयं को स्वजाल में उलझा
कहते हो , माया उलझाती !
मैं ब्रह्माण्ड का रचनाकार
तू देख अपनी शक्ति
तूने भी तो अपना ही
अलग विश्व रच डाला
तुझको उलझाती , भ्रम देती
ये माया भी तो तेरी ही
भाव-जनित कृति
तेरी ही सृष्टि
तेरी मनस्थति
तेरी ही रचना
तू शक्तिसम्पन्न
स्वयं मुझ सदृश
रचनाकार
अपने विश्व का
ओ ! उर्जा कण (क्वांटो )
मुझमे और तुझमे
इतना मात्र अंतर जान
समस्त मौलिक मेरा
मुझ जैसा बने की होड़ में
समस्त अमौलिक तेरे
जितना तू मूल से जुड़ा
तू स्वाभाविक रहता
जितना अ-मूल से जुड़ा
भटका तू दूर स्वकेंद्र से
मैं मुसकाता जाता देख
तेरे अथक बेचैन प्रयास
तू प्रयास करता निरंतर
केंद्र पे रहने का
और भागता उतना ही
केंद्र से दूर
परम प्रिय पार्थ !
करना था तुझे
सरल कर्म मात्र
प्रकृति संतुलन का
ये कैसा संतुलन दिया
तूने स्वयं को ?
मेरे-तेरे ( द्वित्व )
बीच संवाद रहा
सदा परम मौन का
कभी किसी से सुना
कभी नहीं सुना गया
संकेत देता जाता प्रतिक्षण अथक
कभी देखा गया
कभी अनदेखा किया गया
जागा है की सोया
तू नहीं समझ पाया
तुझे देख मैं मुस्काया
ये तेरी भक्ति रूप
ये तेरा प्रेम रूप
ये तेरी पूजा रूप
अंतहीन असमंजस तेरा
निरंतर अवसर देता मैं
मैं भी नहीं समझ पाया !
स्वप्न के अंदर पलते हुए स्वप्न
ReplyDeleteहँसते-खेलते-भागते हुए ये स्वप्न
पीड़ितअश्रुपूरित दुःखमयस्वप्न
जाते स्वप्न कहते देख ले आज
मुझको जी लो पूर्णतः से एकबार
ऐसा न हो अंत, न ये जिया न वो
भूत भविष्य के अतृप्त से स्वप्न
इस में वो लदा रहा और उसमे ये
अतृप्त मृत्यु भी ऐसी ही उलझी
जी लो दोस्त एक जिंदगी जी लो
कर्तव्यपूर्ण , प्रेम पूर्ण , भाव पूर्ण
समर्पित स्वीकृत सुवासित , तुम