Saturday, 18 October 2014

होता सा लगता ; हुआ कब है !






जैसा सोचा, वैसा हुआ कब है 

जिंदगी का दूजा नाम सरिता 


जल में तरंग मधुर जलतरंग


समयअबाध-तेज जलबहाव है 



पत्ते सदृश सिर्फ बहते जाना है 


सच नग्न खड़ा भीड़ में अकेला 


भीड़ खैरखबर रखने वालों की


सभी अपने है कोई नहीं अपना 



भ्रम के दृश्य भ्रम भाव-जन्म 


भ्रममय जीवन भ्रममय पीड़ा 


भ्रमजाल असीमित वेदनापार


उफ़ ये कर्ता भाव , मायाजाल 



होता सा लगता ; हुआ कब है !


अपना जो लगता बना कब है !


रंग-रंगीन भाव है आते जाते !


ठहरे केलिए कौन रुका कब है !



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