Friday, 24 October 2014

देखो ! प्रिय नीरद





बरसते घुमड़ते 

चमकते गरजते 

स्वसफर के तुम 

प्रिय नीरद,देखो !

ना बुरा मानो !

मद्धम फुहार

की बात क्या !  

अब मूसलाधार 

ज्ञान -वर्षा भी  

भिगोती नहीं !



एकबार पहले भी 

तुम यूँ ही सघन 

घनघोर हो काले 

आस्मां पे छाये थे 

अपलक तकते 

चकोर सदृश 

प्यास से आकुल 

हम और तभी 

इस खुले ह्रदय के 

द्वार पे गिरे तुम , 

ज्यूँ खुली सीप के 

मुह में टपके 

स्वाति जलबूँद  

अग्निकुंड सी लपटे 

सुलगती पंचतत्व 

की इस मिटटी पे 

जहाँ नीर  गिरे 

छन्न से उड़ जाये  

ऐसे लावे से तप्त 

दग्ध ह्रदय-प्रदेश 

पे आ पड़े थे तुम !


खूब घनघोर वर्षा 

हुई मूसलाधार 

तो कभी फुहारें 

कभी शीतल बयार 

बहा ले गयी संग 

तपन और कर गयी 

शीतल अन्तस्तम तक 

कभी मिटटी का बर्तन 

रख्हा था आँगन में 

सूखा सा खाली था 

आहिस्ता आहिस्ता 

शीतल जल से 

ऊपर तलक 

भर गया, !


प्रथम शब्दजल 

से भरा , और 

शब्द छलक गए 

रहगया मधु सा ज्ञान 

संज्ञान-अनुभव से 

घड़ा पूरित हुआ ; अब 

कुछ ठहरता नहीं 

जो इसमें गिरता 

नवीन जलकण

रुकता नहीं, सरकता

अटकता भी नहीं 

छलक जाता है 

इस भरे बर्तन से 

शीतल जल बाहर,

व्यर्थ परिश्रम ! 


जाओ ! सुनो !

अमृतकण !

जा के बरसो 

देह-मिटटी के 

खाली बर्तन 

अभी ; कई

आँगनो में रखे 

सूखे रहे प्यासे

अभी अनेक , 

ह्रदय खुले सीप से 

तनिक वहां बरसों 

स्वाति नक्षत्र जलकण 

फैलाओ शीतल फुहारें ,

बनने दो मोती !

जहां धरती दग्ध 

तपती  सुलगती, 

जहाँ चटकती हो 

ह्रदय-दिवाले

जाओ चमको खूब 

बरसो वहां , 

घनघोर घटाओं !!



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