Tuesday 14 October 2014

मानव तू बस मानव हो जा !



कभी तू  ने  जाना ! मानव , तू  क्यूँ  बना  महान !
क्या  है  मानव   महानता ! क्या  है स्वधर्म  मान!

क्या  है  रहस्य  गुणधार  देवत्व  और  दैत्यत्व का
क्या  तेरे  ही  अंदर  जन्मित  व्यसनों  का  आधार

दोनों  गुण  तेरे आदेश  पे, तेरे ही अंदर आश्रय पाते
तुझको  ही पंगु बना के , तेरे  अंदर से  शासन करते

अहंकार शक्ति की पराकाष्ठा चाह में रहते जीवित
देव  दैत्य  दो  वृत्तियान  तुझ मानस-मन की खोज

मानस  मन ने  दिया  तुझे  ये माया  युक्त अभास
शक्तिहीन जान स्वशक्ति को हुई तेरी भागमभाग

क्रोध  लोभ  अहंकार  बनते  दैत्य-मोह के हथियार
तुझ पे ही  स्ववासना  का मोह  खेलता  करता वार  

चतुर   सुजान  बन   कहे  तू  इसी  मोह  को  चाह  
किसको   छलता   जग  में  सोच  ! तू  जरा  सोच !

पहचान स्व-स्थान तू ! न  तो ये  देवता की  गद्दी
न  ही वजूद  हो सका  तेरा  दानवो  के साम्राज्य से

ये  वजूद  न  ही  मंदिर  से, न  मस्जिद  में  समाया
ना  ही लौकिक  पूजन  में , अंध  श्रद्धा  में ये पाया

 देवता हो या दानव तेरा अहंकार  ही नित फले फुले
स्वतः सतुलित हो वजूद यदि स्व-मध्य में जो ठहरे

अत्ति  की दौड़ बंद  हो , नाजुक जीवन धागे के ऊपर
ठहर जा मानव ! यही ठहर जा ! दो श्वांसो के मध्य

विश्राम कर ! द्वनेत्र मध्य ठीक भ्रूमध्यस्थल बीच
आज्ञा चक्र तेरा हुआ तेजस्वी , उचित स्वामित्व पा

शब्दातीत  परं  अद्भुत मनोहर अलोक  प्रकाशित
स्थान  नहीं वहां  तेरे लिए  देव दैत्य-भाव  के साथ

तेरा   स्थान  है  पूर्व  सुरक्षित , मानव के स्थान पे
अति  पूज्यनीय  तू   वहां  देव - दानव  गुण  मध्य

तेरी  पूजा " मानव मंदिर बना " स्वयं  परम करते
देव ओ दानव दोनों तुझमे आश्रय  पाने को तड़पते

दिव्य  ऊर्जा से  भरा  हुआ मानव , तू  है क्षणभंगुर
सीमितता  को  असीमता  में जीना  ही तेरा देवत्व 

जीव की दिव्य असीमता को बल से सिमित करना
अनुचित बल प्रयोग धरा पे  करना तेरा है  राक्षत्व

मानव !  तेरी  मानवता  ही  है परम मोक्ष उपलब्धि
गुरुज्ञानी देते ज्ञान ये ,अनंत-मंथन-चिंतन पश्चात  

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