Saturday 11 October 2014

प्रेम शब्द नहीं एक भाव




प्रेम ; कितने रूप तुम्हारे ! 
कितने स्तर ! कितने रंग !
आलोकित अचेतन चेतन 
संसार-स्फुटन जीवनाधार

मनस्वी कहता स्व-ज्ञान से 
तृण - स्तर  में  वासित  तू 
तन का,मन का,आत्मा का
सूक्ष्मतृण हो या बृहत्तव्योम

तनस्तर पे रुका लिप्सा तक
मनस्तर पे महका भाव तक  
आत्मस्तर टिका भक्ति बन 
सूक्ष्मतृण बना बृहत्तमव्योम

प्रेमी ने कहा हो इन्द्रधनुष 
दृष्टा ने सम्बन्धो में पाया
इस ह्रदय से उस ह्रदय तक 
अदृश्य चांदी तार बंधे सब

प्रेम ! तेरी छाया सुखनिवास 
नव नूतन सृजन करते जाते
बिन रुके बहते बढ़ते चलते 
मिलते स्वतः बिछुड़ते जाते

दीपजला इन नैनो ने जाना
जीवन कैसे जाने स्वयं को
जल कैसे भिगोये स्वयं को
तड़ित से प्रकाशित आस्मां

बादल गरजबरस दूरदेस हुई 
स्वीकृत तन मन भीगे यहाँ 
फूल कैसे सूंघे देखे स्वयंको
तितली कैसे देखे अपने रंग

पराग  उसका  मधु ने पाया 
मधुकीमधुरता जीव ने जानी 
सराहां नयन दर्शन ने सौंदर्य  
द्वित्व,आदित्त्व हो पूर्ण हुआ

हम द्वैत्व की सत्ता के अंदर 
एक ने जिया , दूजे ने जाना
एक दूसरे  का दर्पण  बन के
भाव का दर्शन-दृश्य पूर्ण हुआ


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