Wednesday, 15 October 2014

रेत-कण से हम



उलझना न रुकना न अशक्त बहना 
इसकी आज्ञां मान  जरा नहीं चलना

इसकी मर्जी शोर करे या दे सन्नाटा
जो जिसके पास  वो ही तो दे पायेगा

समय छलनदी संग मिल घुल बहता
रंग-चित्र मनपटल पे चिन्हित करता

वो उलझायेगा उलझना न बिखरना
भर्मायेगा सुख - दुःख धार बहायेगा

किनारे भिगोने  के अथक प्रयासरत
चंचल लहरे  पुनः 
लौट किनारे आती 


ऊँची लहरें कभी मन-पाखी को डराती
फिर स्निग्धशांत बन चरण धो जाती

चतुर रेत भीगी  कभी मायावी जल से ?
रहती ऊर्जावान संयुक्त होअस्तित्व से

पूर्ण स्वीकृत विभिन्न लहरों का जल
किन्तु ठहर न पाता रंच मात्र भी संग

रेत समर्पित क्या जल को या वायु को
या व्योम को सब उसी के अंदर बसते

याके समर्पित स्वनिर्मित भगवान को ?
कोई  शैतान ! या किसी से भयभीत है ?

मौनस्वीकृति मौनसमर्पण मात्रउसको
कणकण श्रद्धासमर्पित परम-केंद्र को




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