Saturday, 11 October 2014

छोटेप्रभु / महाप्रभु





भक्त :-

छोटे    प्रभु   चाहते   थे  हमको  बना  ले  अपने  जैसा
जवान   खून    का   जोश   था   हमारा  पूरा  इंकार था

गर्वित    जीव    के   आगे   कैसे  सर  झुकाते  अपना  ?
चले   ढूंढने  कण - कण  वासित   तुझ   महा  प्रभु  को

घावों   को   भरने  मुखरित  हुए   अस्पताल   की  ओर
काबिल   नाकाबिल   छोटी   बड़ी  दुकाने   सजी  मिली

गजब  !  पूरा   हुआ  इस  महा  पागल  घेरे  का  चक्कर 
मूर्ख  बन  भटकते  हम  इस  बड़े पागल  खाने  के  अंदर

ज्ञान  के  असंख्य  अदृश्य  कर्म जनित  अनुभव  के  घेरे
आकाश- गंगा  के अंदर  समाये ब्रह्माण्ड  में  नक्षत्र जैसे

ज्ञान ध्यान विज्ञान विषयक सागर में डूबते गोते लगते
प्रयासित ऊपर लौटते खालीहाथ पुनः डुबकी  लगा जाते

महा प्रभु :-

ज्ञानी   छोटे प्रभु   से पाये  तीन बीज मन्त्र दर्शन  को
माया  का  नृत्य  देख ;  महा  प्रभु  मंद मंद  मुस्काये

चक्र  पूर्ण  हुआ  देखो  कैसे   इस   अद्भुत  यात्रा  का
बड़े  प्रभु  की  शरण  में  मोक्ष  मिला परम  मौन साध

न  सिर्फ  मौन, मौन  के  साथ  समर्पण  भी  गहराया
और  समर्पण  साथ  स्वीकृति   का  परचम  लहराया

छोटे  प्रभु  संग  महा प्रभु  मुस्काये  बोले ! परम  प्रिय
यही  तो  मांगा  था !  अहंकार  बंधे तुम दे न पाये तब

भाग्याधीन  इतना  लम्बा  गोल  गोल  चक्कर  काटा
वो  तीन   गुण-पुष्प  आखिर  समर्पित  किये  मुझको

समर्पित  होता  उसी  क्षण  गर उस जीव में  देख मुझे
इन्ही  गुणों  के  साथ  मोक्ष  मिला  ही  हुआ  था, तुझे

जान-जान  का  फेर, जिसने  मुझे   ब्रह्माण्ड में जाना
वो  भटका  ब्रह्माण्ड  में  महाध्यानी   महायोगी   बन

जिसने मुझको पाया कण-कण के मध्य केंद्र स्थान में
उसको उपलब्ध परबत/रेत्कण प्रपात /जलबिंदु केअंदर

जहाँ  चाहो- पाओ,  जैसे चाहो - जानो;आशीर्वाद तुम्हे
तीन मन्त्र  के साथ मैं हूँ  खड़ा सतत  तुम्हारे ही पास

मर्जी  तुम्हारी , दौड़  तुम्हारी , जैसे  चाहो, वैसे  आओ
स्वागत  करता  पलपल  क्षणक्षण  निजधाम तुम्हारा

भक्त :-

आपको  आभार किया , धन्यवाद का पुरस्कार भी दिया
किन्तु हर क्षण अपने ही उपलब्ध ज्ञान को सराहां किया

मंदमंद मुस्काते आप, औ हम अपने अर्थ बनाते -लेते गए 
ज्ञान अनुभव-पुनरावृति में फंस वर्तुल में उलझ घूमते गए 

खोजते भटकते गए  ज्ञान अनुभव बढ़ते गए, तुम नहीं थे
जरा बैठ धैर्य से ज्ञान अनुभव  का जाल काटा तुम यही थे !!

गर्वित हो इतराते रहे हम स्वकर्मगति  प्रकर्ति के सहयोग पे
आह !! मूलमर्म अब समझ आया ! प्रणाम , प्रणाम , प्रणाम !


माया  महा ठगनी हम जानी , त्रिगुण फांस लिए कर डोले बोले माधुरी बानी (संत कबीर )


बुध्हम शरणम् गच्छामि  धम्मं  शरणम् गच्छामि  संघम  शरणम् गच्छामि 






( कुछ क्षण  इस चित्र पे  अवश्य  जागरूक - ध्यान दें )

बारम्बार  प्रणाम  महा प्रभु समेत  समस्त  छोटे प्रभुओं को 

No comments:

Post a Comment