सोच-विचार करो ! जरा रुको ! पथिक क्षण भर को !
क्यों वृथा दोष देते हो
लगता है कोई पुरानी आदत है
दोषारोपण कर मुक्त हो हल्का होने की
कभी स्वयं को तो कभी परम को दोषित कर हलके होते हो
क्यों वृथा पीड़ा सहते हो
क्या ये भी आदत कोई पुरानी है
जन्मो पोषित मन की लाचारी की छाया तले
दुःख तो सहने का नाटक करते ही हो साथ ही सुख भी मानो सहते हो
थोड़ा ऊपर से देखो दुनिया
और इस अजब दुनिया के खेल
तुम्हारी ही तो वासनाएं तुम्हारे जन्मो का मेल
तुम्हारे ही मस्तिष्क की पैदावार, भावनाओं की फसल , जो काट रहे हो !
अजब दुनिया का दर्पण है
सब कुछ वास्तविकता से उल्टा ही दिखता
लगता ईश्वर खेल खेलते हमसँग पर होता यहाँ कुछ और
बंधू ! उसे नहीं है क्या और कोई काम ! जो पड़ा रहे सदैव तुम्हारे ही पीछे !
वास्तविकता ये कि शिव देखते -
मुस्कराते तुम्हारी माया लिप्त बालक्रीड़ाओं को
केंद्र में स्थित महानतम कहाँ सरका है इधर उधर रंचमात्र भी
पल-पल बीतते तुम्हारे ही इंद्रधनुषी छद्म रंग वो जानते देखते मुस्काते जाते !
जीवनभोग जिजीविषा उनसे नहीं छिपी
अनंत कल में डूबी प्रचंड लिप्सा मिश्रित लहू में
सुख-दुःख संज्ञा बन फैले बात-व्यवहार में , हास-उपहास में ,
कार्मिक कामनाओ, शब्दों, भावनाओ, तरंग बन समस्त तंत्र जाल में !
धोखा देना स्वभाव जन्मो का
क्या मूरत हो तुम क्या उसने तुमको बनाया
आंसू और हंसी के बीच उलझी मात्र तुम्हारे मन की डोर
भाषा का स्वार्थ उपयोग आच्छादित वाक्चातुर्य तुम्हारा ही प्रिय खेल !
युगोपरांत भी फंसे स्वनिर्मित कीचड में
प्रार्थना रूप जिजीविशाएं ही ईश्वर को दीप जला अर्पित करते
कहते स्वमाया निर्मित भगवान से -' दीनानाथ पहिमाम पाहिमाम '
माया कीचड़ में धंसे भ्रू-तलक परिहासी स्वयं से छल-परिहास करना नहीं चूकते !
सच आया ध्यानी बन जब ,अट्टहास आया !
परम की मनोहर मुस्कराहट का रहस्य तूने सुलझाया
जिया-भोगा, थोडे सुख की चाह फिर भी दुःख रोग कष्ट मिला ,
सिमित जीवन के असीमित जन्म-मृत्यु के मर्म को जान, हुआ मोक्ष-अधिकारी !
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