मैंने तुझको कहाँ कहाँ नहीं ढूंढा
मिलते मिलते फिसल जाते हो
जितने दरवाजे भी मुमकिन थे
सभी खटखटा के लौट आया हूँ
घर आ के स्थिर हो के जो बैठा
पाया तुझको अंदर बंद कमरे में
और जो नजर घुमायी तो हर सु
तू ही तू , तु ही तू , नजर आया
चतुर सुजान तुम खेल खिलाते
अबूझरास्तो से हमको गुजारते
सभी विषय थे मात्र दरवाजे
किसी एक से होके गुजरना था
हर द्वार के आगे ठहरे बढ़ गए
किसी एक के भी पार न हुये
हाथ जोडे पर अधिकार से माँगा
इक्छा समेटे थी अनंत उलाहने
परममौन है मूक ठहरा मध्य पे
स्वयं से न तो देता , न ही लेता है
बस जितना जो भी दो उतना ही
द्विगुणित वापिस लौटा देता है
औ कभी कुछ उल्टा भी होजाता
देने ही देने में जीवन चूक जाता
शायद ये भी किसी का उधार है
अगणित सवाल कौन जवाब दे
कर मौन समर्पण गहन मौन में
मौन स्वीकृति हो परम मौन की
मौनी मौन में पूर्ण मौन के साथ
साक्षी होता मौन,मौन ही फलता
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