Friday, 31 October 2014

एकैक सर्वत्र




सँग भाव का
घर्षित   कंठ
उभरते शब्द
शब्दों के सँग
उभरते  भाव
एकैक  सर्वत्र  

ऊर्जावानजग
उर्वरक_योग
तड़ित घर्षण
जलद व्योम
घर्षण   योग
ज्वालाबहती
वाष्पितमंडल
सर्द हिमवान
एकैक  सर्वत्र

ऊर्जा   स्नान
कभी बिजली
कभी  तूफान
कभी   बयार
गर्जन  प्रचंड
तड़ित  तड़क
अग्नि अणुतं
सुलगते  वन
पुनः  जन्मते
जीवन संयोग
एकैक  सर्वत्र

कोयल  गान
सुवसित तान
खिलते  पुष्प
खग  कलरव
रुनझुनपायल
आँगन मध्य
दौड़ता बाल्य
ओज संयुक्त
एकैक  सर्वत्र  

वाणी सुन्दर
कंठपवन का
घर्षण सुन्दर
चकमकसुंदर
समस्त ऊर्जा
अंकन  सर्वत्र
लघुतम सत्ता
दीर्घतमयोग
एकैक  सर्वत्र  

पनी यात्रा
में रहते तुम
जीवन  पूरा
जीते   जाते
क्षण  विचार
शवपरिणाम
दो  शवास्थि
ले पूरा करते
अंत_संस्कार
शेषतत्वभूति
मिलती  पुनः
तत्वजगतमें
एकैक  सर्वत्र  

ऊर्जासंयुक्त
मिले -बिखरे
कहाँ  -  कहाँ
ऊर्जा -- कहाँ
तत्व -- कहाँ
कोई - दफ़न
जला - कोई
तो बहां कोई 
कोई पर्वत में
कोई  नदी में
तो समंदर में
स्वयं विचारो 
ऐसा  ही  मूल
एकैक  सर्वत्र  

पल



जो जहाँ  हो 
रुको वहीं पे 
ठहर जाओ 
इस पल में

न  कुछ हो
न  होने दो 
नूर  बरसा
इस पल में

छिपी गुदड़ी 
के लाल  सी
जिंदगी पूरी 
इस पल में 

थी वो साँस 
आती जाती 
बेरोक टोक 
पल पल में

इस घडी में 
जाते  जाते
गयी अटक 
एक पल में

अच्छा हुआ 
जो  जिंदगी 
जी थी खूब 
उस पल में

आजतो बस 
बाँध  गठरी 
चलना हुआ 
इस पल में

Thursday, 30 October 2014

गुह्य ह्रदय प्रदेश






शांत जल वो जिसमे
समयिकउछाल नहो 
सतआनंद सुख नदी 
सुख दुःख बहते नहो 

झंझावात से निरापद
स्व अग्नि  प्रज्वलित 
आत्मज्ञान  केंद्र  बन  
अब जीवन सरलतम

तेरा आभार बारम्बार 
जो ज्ञानदीप जलाया 
अन्धकार  की  छाया 
नहीं,दर्पण नहीं माया 

संतुलित  प्रज्वलित
एक  स्थिर लौ  दीप 
गुह्य ह्रदयप्रदेश का 
हुआ कम्प  सुरक्षित 


इ+तनी सी बात समझ न आई


तुम रहे छिप गहन गुफा मध्य
वस्त्रो के तिहरे आवरण से ढंके

गूढ़ स्व-यम पर आवरण डाल
कार  (शरीर)  के आ + कार पे

आवरण देके अंदरुनी वस्त्र का
तदुपर ढांक लिया चलन-वस्त्र

ये शरीर  यानि आकार की कार
जिव्हा मस्तिष्क मन  आवरण

शब्दों के  आभूषण से आवरण
स्व की आवृति अनावृत करते

यम संग या स्व-यम संग रहते
बात समझने की है बस इतनी 

जो  इ  के  संग भी  तनी  हुई  है
इ+तनी सी  बात समझ न आई

Wednesday, 29 October 2014

अनुभव






एक अनपढ़ मिस्त्री ने कहा :-

नीवं की खुदाई  देखो ठीक से हो !
हर पक्की ईंट सिधाई से लगी हो 
ईंटों के बीच का मसाला, सही हो 
भवन  का  बोझ उसी  पे है टिका 

तीन स्तर पे ध्यान देना  सही से 
*नीवं *दीवालें औ *छत जब पड़े 
चौखटा शीशम  का जरा मजबूत 
दरवाजों खिड़की  उच्स्तर की हो ,

कुंडे  कब्जे में देखना जंग न लगे  
वातायन  प्रवेश  द्वार लचीले हो 
सही  मौसम  पे खुल-बंद हो सके 
सजाना   दीवारों  को रंगीन  रंगों 

सुविधायुक्त सुन्दर उपस्करों से 
बागवानी में मनपसंद पुष्पखिले 
रहना उसमे परिवार बना  प्रेम से 
नीवं दीवाल छत योग स्मरण रहे  

छत पे चढ़ने का इतना अर्थ रहा 
कोशिशतरकीब की ईंटें अब छोड़ 
आस्मां पे  पाखी उड़ने  को तैयार 


जुलाहे ने कहा :-

कपास  का वस्त्र  जो तुमने पहना 
अनवरत  परिश्रम से ये बुना गया 
उगाया उचित भूमि पे इस पौधे को 

उचित खाद जल और मौसम संग 
उचित  समय पे ये पौधा वृक्ष बना 
वृक्ष बन  इसने फल-कपास  दिया 

वहां से इसे जतन से इकठा किया 
सूत-कात लूम-चढ़ तानाबाना बना 
एकएक धागे के रंग से कृति उभरी 
सही काटकटाव से ज्ञान वस्त्र बना 

मौनी!सुन समाज का हरवर्ग कहता 
कर्मकर्ता! मोची, मालन,पनिहारिन 
मौन स्वकर्मपथ पे वो चलता रहता 
हरसु एक शब्द की टंकार वो ॐकार  


ज्ञानी ने कहा :-

योग  करो  अन्तस्तम शुद्ध करो 
प्राणायाम से स्व ऊर्जा संचार करो 
ध्यान  से  भाव ज्ञान का दीप जले

नक्षत्रो  ऊपर  केंद्र  में  स्थति  केंद्र-
से  जा  मिलना उच्छ्तम्  अवस्था
आखिरी  छलांग  अंतिम उपलब्धि 

मन्त्र जान, शास्त्र जान, सुन-सुना  
मृत्यु जान हो जन्ममोक्षअधिकारी 
हरसु एक शब्द की टंकार वो ॐकार  


बालक ने कहा :-

खेल खेलता  बिना  थके  दिन रात 
खाना और  माँ  के आँचल में सोना 
हँसता  खिलखिलाता  मैं  मित्र सँग 
कल क्या है क्या था ? नहीं जानता 
आज में जीता,जाते इस पलपल को 
दोस्त फूल पक्षी हवा रिमझिम जल 
तितली संग डोलता रहता दिन  रैन 
आमंत्रित तुम भी खेलो, आओ संग!
हरसु एक शब्द की टंकार वो ॐ कार  


साक्षी ने कहा :-

इतना सबसुन जान के,मुझे सुनाई दी 
हरसु एक शब्द की टंकार, वो  ॐ कार  
भवन की छत पे खड़ा, साक्षी उड़ने को  
जुलाहे का बुना ये रंगहीन , वस्त्र ओढूँ
छोटे से बालक संगमिल मैं, खेल खेलूं 
सिद्ध गुरुज्ञानी के ज्ञान झूले में झूलूँ 
जाऊं किसी बूढ़े वृक्ष के पास करूँ वार्ता
हर सु  एक शब्द की टंकार वो  ॐ कार  



 ॐ कार  :-

सरलतमशुद्धतम सर्वज्ञान आधार  
ज्ञानियों  में  अज्ञान  बन   खिलता 
अज्ञानियों में ज्ञान बन जल उठता 
कर्मठ  के कर्म में  छुप छिप  रहता 
योगी के  योग में कठिनतम बनता
भक्त के ह्रदय भाव बन छुप रहता  
बीजगृह में केंद्रित हीरे सा चमकता 
फूलों की खुशबु  सौंदर्य  जड़ों  में वो 
बालक के रुदन मुस्कान में मिलता 
पक्षी के डैनों  ताकत बन के बासता  
सागर में जल लहरों में शक्ति ऊर्जा 
हवाओं में मलयपवन, बवंडर भी वो
जीवन में मृत्यु , मृत्यु में महामृत्यु 
जन्म में चेतना निष्प्राण में अचेतन 
असीम शक्तियुक्त,निर्बलता भी वो  
असीम  सौंदर्य, असीम  कुरूप वो ही  
जैसे भी  देखो, जानो, मानो, समझो
हर  तत्व  की उठती गिरती तरंग में 
हरसु एक शब्द की टंकार वो ॐ कार  




Tuesday, 28 October 2014

कोकून योग



इस बीज से उस बीज को जाता हर कदम 
स्व-बीजरूप गुणात्मक यात्रा से अनजान

प्रथम बीज से जन्मित रेंगते ज्ञानविहीन 
अनुभव समस्त साथ ले ज्ञान राह पे चले  

हर कदम रेंगता चलता, स्व-गंतव्य ओर 
यद्यपि लगता अपनी यात्रा अपनी मर्जी 

कोकून में बैठ  द्वितीय जन्म  निखरेगा 
नूतन आकृति  संग  रंग और सुर्खरू होंगे

बीज में रहते हुए भी, बाह्य को थे उन्मुख 
पुनःबीज प्रवेश प्रारब्ध था क्या ज्ञात तुझे 

पुनर समय द्वित्य बीज में प्रवेश लेने  का 
इस गर्भ  से निकले तो चिदाकाश मिलेगा 

जीव ! लम्बी यात्रा का नहीं अंत,ये पड़ाव है
सुस्ताना  फिर चल पड़ना, मद्धम गति से 

अनंत काफिला देख स्वउत्थान गर्वित न हो  
यहाँ भी मध्य खड़ा तू आगे भी भीड अपार है 

अभिनन्दन मग्न शून्याकाश भी पड़ाव ही है   
न सोच!राह ही मंजिल तेरी मंजिल ही राह है 





Monday, 27 October 2014

ॐ की पुकार



प्रार्थना मेरी तुझ अपार से

मेरी ग्राह्यता यूँ अवसर दे मुझे


सिमटे अनगिनत टुकड़ो में

तारामंडल टिमटिमाते अपरिचित


खंड-खंड में सिमित अज्ञेय

रचे गढ़े देवी-देवता हजारों लाखों


सभी हुए निजी , बंधे, संकीर्ण

शरीरो में ऊर्जाएं नहीं बंधा करती


सभी रिश्ते समाहित इसमें

कर्त्तव्य प्रेम से सराबोर मनजधर्म



रिश्ते स्वयं ही जी उठेंगे

मनुष्यता को मात्र पूर्णरूप जीने से


ऊर्जा का ॐ स्रोत वो वहां

धरती पे मनुषधर्म की है पुकार

Friday, 24 October 2014

देखो ! प्रिय नीरद





बरसते घुमड़ते 

चमकते गरजते 

स्वसफर के तुम 

प्रिय नीरद,देखो !

ना बुरा मानो !

मद्धम फुहार

की बात क्या !  

अब मूसलाधार 

ज्ञान -वर्षा भी  

भिगोती नहीं !



एकबार पहले भी 

तुम यूँ ही सघन 

घनघोर हो काले 

आस्मां पे छाये थे 

अपलक तकते 

चकोर सदृश 

प्यास से आकुल 

हम और तभी 

इस खुले ह्रदय के 

द्वार पे गिरे तुम , 

ज्यूँ खुली सीप के 

मुह में टपके 

स्वाति जलबूँद  

अग्निकुंड सी लपटे 

सुलगती पंचतत्व 

की इस मिटटी पे 

जहाँ नीर  गिरे 

छन्न से उड़ जाये  

ऐसे लावे से तप्त 

दग्ध ह्रदय-प्रदेश 

पे आ पड़े थे तुम !


खूब घनघोर वर्षा 

हुई मूसलाधार 

तो कभी फुहारें 

कभी शीतल बयार 

बहा ले गयी संग 

तपन और कर गयी 

शीतल अन्तस्तम तक 

कभी मिटटी का बर्तन 

रख्हा था आँगन में 

सूखा सा खाली था 

आहिस्ता आहिस्ता 

शीतल जल से 

ऊपर तलक 

भर गया, !


प्रथम शब्दजल 

से भरा , और 

शब्द छलक गए 

रहगया मधु सा ज्ञान 

संज्ञान-अनुभव से 

घड़ा पूरित हुआ ; अब 

कुछ ठहरता नहीं 

जो इसमें गिरता 

नवीन जलकण

रुकता नहीं, सरकता

अटकता भी नहीं 

छलक जाता है 

इस भरे बर्तन से 

शीतल जल बाहर,

व्यर्थ परिश्रम ! 


जाओ ! सुनो !

अमृतकण !

जा के बरसो 

देह-मिटटी के 

खाली बर्तन 

अभी ; कई

आँगनो में रखे 

सूखे रहे प्यासे

अभी अनेक , 

ह्रदय खुले सीप से 

तनिक वहां बरसों 

स्वाति नक्षत्र जलकण 

फैलाओ शीतल फुहारें ,

बनने दो मोती !

जहां धरती दग्ध 

तपती  सुलगती, 

जहाँ चटकती हो 

ह्रदय-दिवाले

जाओ चमको खूब 

बरसो वहां , 

घनघोर घटाओं !!



Wednesday, 22 October 2014

पल - कल



ल कल करती बहती नदिया धार 
जल प्रवाह हर पल में होता  नवीन 

बेकल मूरख कल-पे कल-पे कहता 
पलपल जीना ना अभी सीख पाया 

लपल कलकल कर दौड़ता जाता 
बीता फुस्स अगला नजर न आता 

जीले इस पल में इसी  सांस को पूरा 
पल की साँस  कहती पूर्ण कल-कथा 

कभी पल में ही तोला माशा हो जाता 
कभी  राजा-रंक रंक-राजा बन जाता 

कभी किसी को ये पल साँसे दे जाता 
कभी यही पल श्वांस-माला तोड़देता 

ल पल में जीवन यात्रा पूर्ण है होती  
पलसंकल्प में बड़ी घटना घट जाती 

ज्ञान  के संज्ञान का टुकड़ा यही  पल 
मूर्खताओं की गाथा भी गाता ये पल 

पल कलकल सा कलकल में बहजाता  
व्याकुल हो अपने चिन्ह बनता जाता 

Monday, 20 October 2014

स्व स्वप्न- स्वजागरण ( कथा )



स्वप्न  के अंदर उभरते स्वप्न और पुन उसी क्रम में टूटते / खुलते  स्वप्न , और  जागते जीव 
स्वप्न, स्वप्न के स्वप्न के अंदर  सुप्त प्रवेश  और जिज्ञासु  सुप्त मानव 


      जीवजन्म

( प्रथम निद्रा प्रवेश ):-

अरे ! अरे ! अरे !
ये क्या हुआ !
आँख पहली खुली
या के
पुनः पुनःजन्म की
श्रृंखला में
पुनः दोबारा बंद हुई
जैसे ही जन्म लिया ,
आधी सोयी  आधी जगी
मींजते आँख खोली
मानो बृहत् स्वप्न
के अंदर प्रवेश हुआ
सब हंस रहे थे
खुशियां मना रहे थे
हम  कभी रोये और
मुस्कराये जा रहे थे
और इसके साथ ही
पिछली पीड़ा गर्भ की
स्वप्नवत  भूल गए
उससे भी पिछले सारे
क्रमबद्ध जिए जन्म
स्वप्नवत  भूल गए
और ले लिया इस
स्वप्न में प्रवेश

( स्वप्न के अंदर स्वप्न में प्रवेश  )

माँ  ने दिया प्रेम से
भरपेट  स्तन पान 
जल्दी लगा की नींद
आगोश में ले रही है
सोयी हुई  पलके
पुनः मुंद गयी
एक और सपने में
मन गोता लगा गया

( एक और सपने  में पुनः प्रवेश हुआ )

वो  संसार कहाँ गया !
यहाँ तो पात्र कथा
भाव सब  अलग
यहाँ के विषय अलग,
हम यहाँ खो गए
वो  माँ की गोद
वो हंसना  रोना
पिछला स्वप्न भूल गए

ओह !

मायानगरी का तिस्लिम
मुझ जैसे राहगीर अनेक
व्यस्त रहते कर्म करते
हँसते गाते रोते खाते
घर  को  लौटेते  और
पुनः पुनः सो जाते

उसी निद्रा स्वप्न के -
स्वप्न के स्वप्न में 
पुनः प्रवेश  किया  
एक और स्वप्न
जीने लगे

इन सभी स्वप्नों में
एक समान पीड़ाये ,
सुख , दुःख ,  कर्म ,
अनुभव होते जाते
कहते  सुनते जाते ,
बंधू बांधव मिलते
और बिछड़ते जाते
सबके  समय यूँ ही
गुजरते जाते

स्वप्नों की छाया में
सपने देखते देखते
सपने में ही
हम बड़े  हो चले है
स्वप्नलोक के लोग
कहते  है बालक थे
अब हम वयस्क है
हमारा परिवार है
जिसमे कुछ बूढ़े
और कुछ बच्चे है
अनेक  सम्बन्धी है
कुछ दोस्त और
कुछ दुश्मन भी  है
यूँ ही बूढ़े भी होंगे
सभी विदा लेते है
चले जाते है कभी न
लौटने के लिए
हमें भी जाना होगा
अनेक अनुभव
अनुभूतियों के साथ

स्वप्न-अंत अनुभूतियाँ :-

किन्तु  ये तो मात्र
स्वप्न का अंत है 
सबसे पहले देखे गए स्वप्न का अंत 
स्वप्न अंत  सिलसिला
भी क्रमबद्ध  ही हुआ
एक झटका  और
सबसे छोटा
सबसे नया स्वप्न
सबसे पहले समाप्त हुआ
हमने जाना की
जो टुटा वो सपना था
किन्तु अभी भी
हम सपने में ही है
इसका अंदाजा नहीं था
और हम पूर्ववत
समस्त ज्ञान के साथ
छोटे स्वप्न के अंदर
पुनः कर्म करने लगे
जैसे सदियों से  इस
स्वप्न में रह रहे हो !
अचानक  एक और
समाप्ति की सुचना
और हम उस संसार
से जाग के मानो उबरे
पाया  के अपने ही
बिस्तर पे पड़े थे
नए दिन और
चाँद साँसों के लिए
भाव से "प्रभु" को
धन्यवाद दे ,
बिस्तर से उठे फिर
नहां धो के ,
नए कार्य के लिए
आशीर्वाद मांग
दैनिक कर्म में लिप्त हुए
जैसे इसको सदियों से
ऐसे ही जी रहे हो,
वो ही भूख  प्यास ,
रोजी रोटी का सवाल
वो ही जर , जोरू ,
जमीन पे मल्कियत
का जाग्रत भाव
वो ही घर, वो ही
दिवाले, वो चेहरे
वो ही  इंद्रियक
दर्द अंग और मन में
वो ही स्पर्धा और
वो ही तो भागमभाग
दिन ढले लौट के आते
भोजन करते
और फिर
सो जाते

साक्षी :-

साक्षी कहता
ये भी स्वप्न ही है
थोड़ा बड़ा है और
सबसे पहला  है
सुन  मेरे प्रिय
इस स्वप्न के क्रम भी
उन स्वप्नों जैसे ही है ,
बस , जरा अंतराल बड़ा है
युग का स्वप्न इससे भी बड़ा
ब्रह्मा का स्वप्न तो और भी बड़ा

समस्त स्वप्न से जागरण  ):-

साक्षी  ने देखा
एक दिन
ईमारत की मंजिलों
ऊंचाई से
एक चींटी  नीचे को
गिरते हुए
रेलिंग की कगर पे
चलने का
अनवरत  प्रयास
करती  हुई
एक बार फिर
लुढ़क जाती
एक तल  नीचे
वही से उसी तल पे
तनिक रुक
उसी कगर पे पुनः
चलने लगती
अनजाने गंतव्य पे
बढ़ती जाती
कुछ दूर चलती और
फिर पुनः पुनः
लुढ़कती  जाती  और
पुनः पुनः बढ़ती
चलती जाती ,
बुद्धि नहीं थी
जो प्रश्न करती,
विषय बनाती ,
और उलझती

साक्षी उलझा
स्वयं  में
बुद्धिहीन जीव
यदि सुखयुक्त
तो बुद्धि का
प्रयोजन क्या ?
संसार में जो भी
उपहार मिला
वो व्यर्थ नहीं ,
फिर बुद्धि ?
व्यर्थ  इतनी पीड़ाये
क्यों सहना ?

मूल को पकड़
हर मूल के भी
मूल पे चलते
नेति नेति  करते
पहुंचे अंतिम मूल पे
और !  और !
आश्चर्यजनक सर्वव्याप्त
अद्भुत उत्तर मिला !
मानव जीवन
मात्र " संतुलन "
चहुँ ओर उजागर
एक ही सत्य

बुद्धियुक्त-जागृत-संतुलन

अरे जिज्ञासु  !
तुझे तो  पहले ही
बिना पूछे सारे उत्तर
मिल गए थे
जिस क्षण धरती पर
डगमगाते असहाय से
स्वयं को संतुलित करते हुए
पहला कदम डाला था
किसी अनजान  अनुभवी ने
तेरा  नन्हा हाथ थामा था
संतुलन  की श्रृंखला को
आगे बढ़ाया था
इस क्रम चक्र में
उत्तर सारे मिल गए
तेरी जिज्ञासा का था भान  उसे,

प्रश्न से पूर्व ही
समाधान सारे मिल गए
संतुलन अधिकार
सम्पूर्ण चराचर में
अन्य  के पास नहीं
प्रथम संतुलन
के अंदर आकाशगंगाओं
समेत अखिल ब्रह्माण्ड
संभालता वो सर्वज्ञ
दूजा संतुलन का
अधिकार  मानुष तुझे
इसीलिए  ईश्वर के बाद
उत्तरदायी उत्तराधिकारी तू ही

जिस प्रकार  ऊर्जा-वास
से कण कण- निर्मित हुआ
ये अखित ब्रह्माण्ड
विश्व कहलाया
उसी से ऊर्जान्वित
ऊर्जायुक्त  ये
स्वप्नजगत कहलाता
शांत !! सुन जरा !
उसे तनिक मौन हो
संतुलन के  परम धर्म में
तू  उसका  दाहिना हाथ बना
मध्य  खड़ा तू मानव बन
संतुलन की रस्सी पे
एक तरफ को बढ़ा
तो  देव हुआ
दूजी तरफ  लुढ़का
तो  दानव कहलाया

परम :-

प्रकृति  स्वयं को सतुलित करती जाती
मानव तू स्वयं को संतुलित करता   ,
साथ ही,
स्वयं को संतुलित करती प्रकर्ति
को भी संतुलित करने में
सहयोग  करना
तेरे  ही जीवन का आधार
तू स्वयं संतुलित  होता
दूर सौर ऊर्जाओं की शक्ति से
अलग कहाँ , सब एक ही तो है
आपसे में सब गुथम-गुथा 

धर्म में , भाव में,  चक्र में
शक्ति में , कर्त्तव्य में ,
सदैव स्वयं को
संतुलित करता जाता ,
फिर भी परम-असंतुलित
निजमानव धर्म भूला
कहाँ तू उलझा ?
कहाँ तू भटका ?
कौन से  गुणधर्म ने
तुझे  भटकाया ?
क्या तू स्वदिव्यता को  जान पाया ?

कहाँ तू उलझा ?
कहाँ तू भटका ?
कौन से  गुणधर्म ने
तुझे  भटकाया ?
तू ही भुला  अपना धर्म
कहाँ कहाँ खोया भटका
कितने विषय बना डाले
स्वयं को स्वजाल में उलझा
कहते हो , माया उलझाती !
मैं ब्रह्माण्ड का  रचनाकार
तू देख अपनी शक्ति
तूने भी तो अपना ही
अलग विश्व रच डाला
तुझको उलझाती , भ्रम देती
ये माया भी तो  तेरी ही
भाव-जनित कृति
तेरी ही सृष्टि
तेरी मनस्थति
तेरी ही रचना
तू शक्तिसम्पन्न
स्वयं मुझ सदृश
रचनाकार
अपने विश्व का


! उर्जा कण (क्वांटो )
मुझमे  और तुझमे
इतना मात्र  अंतर जान
समस्त मौलिक  मेरा
मुझ जैसा बने की होड़ में
समस्त अमौलिक तेरे
जितना तू मूल से जुड़ा
तू स्वाभाविक रहता
जितना अ-मूल से जुड़ा
भटका तू  दूर स्वकेंद्र से
मैं मुसकाता  जाता देख
तेरे अथक  बेचैन प्रयास
तू प्रयास करता निरंतर
केंद्र पे रहने का
और भागता उतना ही
केंद्र से दूर
परम प्रिय पार्थ !
करना था तुझे
सरल कर्म मात्र
प्रकृति संतुलन का
ये कैसा संतुलन दिया
तूने स्वयं को ?
मेरे-तेरे ( द्वित्व )
बीच संवाद रहा
सदा परम मौन का
कभी किसी से  सुना
कभी नहीं सुना गया
संकेत  देता जाता प्रतिक्षण अथक
कभी देखा गया
कभी अनदेखा किया गया
जागा है  की सोया
तू नहीं समझ पाया
तुझे देख मैं मुस्काया
ये तेरी भक्ति रूप 
ये तेरा प्रेम रूप 
ये तेरी पूजा रूप 
अंतहीन असमंजस तेरा
निरंतर अवसर देता  मैं
मैं भी नहीं समझ पाया !

होम




अग्नि प्रज्ज्वलित धूं-धूं  उन्नत लपटें
इर्द गिर्द आग के होता तत्वों का नर्तन

अग्निहोम  में सब स्वाहा बचा न कोई
तात्विक-नर्तन  आहुतियां  हैँ तत्व की

उत्सव  शोक  दोनों अग्नि समक्ष घटते
जीवनदायनी ही महाविनाशकारी होती

जिंदगी स्वयं ऊर्जा का प्रकाशस्वरुप  है
जिंदगी का होम , इन्द्रियां डालें आहुति

चन्दन की आहुति से महकता ये उपवन
विषैली आहुति से हो दूषित तरंगित वन

दुर्गन्ध फैलती तो कभी चन्दन महकता
मानवदेह में वासित जीव स्वयं अग्नि है

अपवित्र-आहुति युक्त धुंआ सघन हुआ
आहुति पवित्र प्रज्वलित धूम्र रहित बने

भस्म  होती आहुतियाँ महकती  चहुंओर
गुण-महत्वपूर्ण-आहुति के,मन सावधान

आनंदम-आभार-दया-प्रेम-करुणा स्वाहा
दिव्य-अनुभूति समर्पण स्वीकृति स्वाहा

कर्त्तव्य स्वाहा ऊर्ध्वगमन  चैतन्य स्वाहा
उत्सव- मंगल - नैसर्गिकता-ओम-स्वाहा

समस्त आहुतियां सुगंध से महका दे वन
नीलकंठ बन अमृतपूर्णाहुति ओम स्वाहा !

Saturday, 18 October 2014

होता सा लगता ; हुआ कब है !






जैसा सोचा, वैसा हुआ कब है 

जिंदगी का दूजा नाम सरिता 


जल में तरंग मधुर जलतरंग


समयअबाध-तेज जलबहाव है 



पत्ते सदृश सिर्फ बहते जाना है 


सच नग्न खड़ा भीड़ में अकेला 


भीड़ खैरखबर रखने वालों की


सभी अपने है कोई नहीं अपना 



भ्रम के दृश्य भ्रम भाव-जन्म 


भ्रममय जीवन भ्रममय पीड़ा 


भ्रमजाल असीमित वेदनापार


उफ़ ये कर्ता भाव , मायाजाल 



होता सा लगता ; हुआ कब है !


अपना जो लगता बना कब है !


रंग-रंगीन भाव है आते जाते !


ठहरे केलिए कौन रुका कब है !



सुना है !

दैत्य और देवता समाज में ; मानव तेरा अस्तित्व ! 

कल  दहशतगर्दों  ने संग मिल-जुल के रेकी की !
कुछ   दम होगा  जरूर  उनकी  भी दुआओं  में !!
उनकी भी अपनी है, ख़ुदा से संपर्क की विधियां !
सफल उपद्रव करते, प्रार्थनायें सुनी जाती तो है !

हमारे  सदृश  अंधविश्वासों में वे भी  गहरे रहते
धन संग  मिल वे   भी अपना माया-दुर्ग है रचते
शक्ति  प्रदर्शन  होता  एक मात्र  औजार उनका
अपना शासन, अपने नियम, अपना अत्याचार

जल-तत्व अग्नि-तत्व संतुलन में पलते जीवन
छोटे बड़े चक्र और चक्रों के होते यहाँ भी चक्कर
अग्नि-तत्व प्रधान तो समझ संग बहा लेजाता
जलीय-तत्व प्रधान तो  भाव संग खेलता जाता

लिखा पीड़ित  पूर्व ऋषियों ने तुम भूले शायद
दैत्यों की दुआओं में, बर्खुर्दार ! खासा असर है
दैत्य गुरु , सेना, देश-राज्य और रुतबा उनके
उनके  भी भगवान पूजा श्रद्धा इमां बने होते
दुनियावी  दस्तूरों में न उलझे मन तो अच्छा !
लौकिक  प्रपंच पूजाभाव  सच क्या ! झूठ क्या
वृत्ति अनुसार  कृत्ति  हर-सू फलती पायी जाती
ऊर्जामय  संसार में सही क्या और गलत क्या !

मध्य हो स्थिर मायाखेल जान !  तू माया पार
दैत्य देवता के मध्य खड़ा तू  मात्र मानव हुआ
सभी भाव  भ्रमित होते सभी इंद्रियक अनुभव
कर्म-प्रवृत्ति संग बैठ  प्रारब्ध बना भाग्यरचेता 

O' wise traveler



No matter how heavy burden is,

carried on head and lifted by heart


Take break and few deep breaths 

stop on stage where exact you are


Take a glass of cold pure water -

fruits grows in garden of freshness


Keep aside collected heavy luggage 

Map draw to inside, look distinct goal


O' wise traveler, leave cease-stones 

Ocean is in front , Smile Walk & Run