Wednesday, 14 January 2015

आग का दरिया : जिंदगी


ये इश्क़ नहीं आसान  इतना ही समझ लीजे 

इक आग  का दरिया है और डूब के जाना है


(मिर्जा ग़ालिब )


हर बार वो तूफ़ां उठता है 
जिस्म  हवा में  उड़ते तो है

बिजलियों की गरज तले 
हर  मौसम  बिगड़ता तो है

उठती सुनामी लहरों में 
जिस्म  पत्ते  से  बहते तो है

मृगमरीचिका की जमीं में 
इंसानी लहू सूखते भी तो है

रेगिस्तानी बवंडरों में फंस
इंसानियत भी शर्माती तो है

मौसम गुजर जाने के बाद 
फिर से समां बदलता तो है

लावे सी गर्म ये जिंदगी 
हर बार दोबारा बहती तो है

यही मरके जीने की अदा 
इंसान रूहानी बनाती तो  है 

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