Saturday, 10 January 2015

मेरे दिल के टुकड़े


बड़ी उलझन में हूँ कैसे कहूँ क्या कहूँ
इसको सही कहूँ की उसको सही कहूँ

खुद  को  ही बार बार काटती  हूँ  मैं
फिर  जोड़ती  हूँ , टूटे  सिरे  दोबारा

दोनों  ही  दिल  के  टुकड़े अजीज है
अपने अपने नजरिये  से दोनों सही

एक भावनाओं के समंदर में नहाया
तो दूजा भावनाओ को पहने जी रहा

सही कहु किसे सही  होने  को  कहूँ ?
समय की मार औ वार दोनों के लिए

दोनों ही समय के हथोड़े  को सह रहे
दोनों संघर्ष कर रहे जी रहे संभल रहे

दोनों ही प्रेम और आशीष के हक़दार
दोनों ही  मेरे  दिल के टुकड़े मेरा लहू

मुझसे ही पैदा दोनों  मेरे प्रतिबिम्ब
मेरे ही सुख और दुःख के सृजनहार

चार  कोण  पे  फैला  मेरा साम्राज्य
चार  दिशाओं में फैले जुड़े अंदर तार

त्रिकोण  से देखू  तो जानू  स्वयं को
मेरा ही विस्तार , मेरा ही व्यापार है  

यद्यपि गर्भ एक  गर्भ पीड़ा भी एक 
माँपिताकोणसंयोग से स्थति भिन्न

होगए विचार अलग परिणाम भिन्न
जीवन के  मापदंड आधार अलग हुए

पर ये भी तो  मेरा ही विकसित भाग
मेरी वो संतान  सुखद मेरे अंजाम है




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