Sunday 18 January 2015

मंजर



एक अजब मंजर है सफर का 

फिसलते से हम बढ़ते ही गए



राहगीरों की बेशुमार भीड़ में 


गिरे तो कुछ संभलते भी गए



परदे पे रुलाते थे वो जी भरके 


पर्दे पीछे शुक्राना वो हँसते रहे



हँसाते तमाम उम्र माबदौलत 


परदे पीछे वो अश्क बहाते रहे



जिंदगी ऐसे भी जिंदगी देती है 


जिस्म से रूह भी छीन लेती है



जो है बहुत है शुक्रिया उसका 


लेती है तो कीमत बता देती है



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