Sunday, 25 January 2015

द्वैत अद्वैत


द्वैत अद्वैत तंत्रजाल के निगहबानो

मैं जहाँ हूँ, वहां से मैं बंटा नहीं, एक हूँ 


मत बांटो मुझे रक्त रंजित समूहों में 


उड़ाओगे "मेरे" चीथड़े .."मेरे" नाम पे

मिटाओगे अपना ही खोखलअस्तित्व



मतिभ्रष्ट हुए नष्ट विनष्ट अस्तित्व


खेल को खेल के,मुझमे समाँ जाओगे


शुरूसे मुझे तुमको फिर गढ़ना पड़ेगा


मैं ही था, मै ही हूँ,अंत में मैं ही बचूंगा


अकेला हूँ,अखंड, अविनाशी, सुरक्षित



जिन्होंने जाना कहा ; हर-बार बार बार


प्रेम हो तुम,नफरत गहरी अज्ञानता है


सत्य प्रकाश के पास "द्वैत" नहीं होता


क्या बुद्ध क्या जीसस क्या कृष्णराम


क्या गीता, क्या बाइबिल, क्या कुरान



क्या रूमी, कबीर, मीरा और मोहम्मद


उस तल से कहता हूँ,संदेस सुन ध्यानी


मनुष्य से कहलाता मनुष्यता के लिए


" मैं " मनुष् कहता हूँ "तुम प्रेम ही हो "


प्रेम से प्रेम के लिए स्व प्रेममय रूप हो



लहरों में तरंग" मैं " फूलों में सुगंध " मैं "


संगीत में स्वर हूँ मैं चित्र में रंग " मैं " हूँ


डमरू का नाद मैं ब्रह्म का रूप " मैं "  हूँ


ज्ञानी की उठी ऊँगली के इशारे में "मैं" हूँ


शास्त्र के सफ़ेद पन्ने की कालिख में नहीं


प्रेमीयुग्म  के ह्रदय की धड़कन में "मैं" हूँ

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