Friday 16 January 2015

अच्छा लगता है

कभीकभी खुद को शीशे में देखना, अच्छा लगता है
धूल को झाड़-पोंछ लम्हे समेटना, अच्छा लगता है

पीछे  छूटे पन्नो को फिर से पढ़ना अच्छा लगता है
पढ़के किताब बंद करके बढ़ जाना अच्छा लगता है

पलट देखा सन्नाटा पसरा था , ज्यूँ  कुछ हुआ नहीं
समंदर गुजर गया चिंगारियों  से,  उसे पता ही नहीं

बंद  आँख से बीते गीत गुनगुनानां अच्छा लगता है
रखी एल्बम से स्मृतिचित्र पलटना अच्छा लगता है

एक एक आती जाती श्वांसो सी कड़ी में कड़ी जोड़ते
भरी गठरी खाली करना फिर भरना अच्छा लगता है

आगे की सोचे क्या, खड़े दो कदमों  पे, नीचे जमीं है
पीछे छूटा ! कुछ भी तो नहीं, गहरी सांस ले चल पड़े

फिर भी ! खुद को शीशे में देखना , अच्छा लगता है
धूल को झाड़-पोंछ लम्हे समेटना , अच्छा लगता है

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