Thursday 29 January 2015

उम्र की उभरी सिलवट


रेगिस्तान की उड़ती रेत पे उभरे सिलवट के निशां
या हो समंदर पे टिके पत्थर पे गहरे में तैरती काई

देखने वाले पारखी थमी हुई खामोश चट्टानों में भी
सिमटी हुई उम्र की सिलवटों के निशां देख लेते है

या हल्क़े नीले आस्मां के जिस्म पे तैरते घने बादल
घनघोर घनी पर्तो में ही उम्र की गहराइयाँ समेटे है

दरख़्त की छाल पे उम्र की लकीरें खुदी नहीं होतीं 
कण कण का ठहरा मन, इक उम्र ए दौराँ समेटे है

फकत अंग-वस्त्र ही अपनी उम्र का बयां नहीं करते
रूह के पैरहन उम्र ए सिलवट के निशां लिए बैठे है

तमाम रूहें ही नहीं इस सिलवट में लिपट उलझी है
खुदा खुद वख्ते-उम्र की सिलवट में लिपट उलझा है


Om Pranam

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