रेगिस्तान की उड़ती रेत पे उभरे सिलवट के निशां
या हो समंदर पे टिके पत्थर पे गहरे में तैरती काई
या हो समंदर पे टिके पत्थर पे गहरे में तैरती काई
देखने वाले पारखी थमी हुई खामोश चट्टानों में भी
सिमटी हुई उम्र की सिलवटों के निशां देख लेते है
सिमटी हुई उम्र की सिलवटों के निशां देख लेते है
या हल्क़े नीले आस्मां के जिस्म पे तैरते घने बादल
घनघोर घनी पर्तो में ही उम्र की गहराइयाँ समेटे है
घनघोर घनी पर्तो में ही उम्र की गहराइयाँ समेटे है
दरख़्त की छाल पे उम्र की लकीरें खुदी नहीं होतीं
कण कण का ठहरा मन, इक उम्र ए दौराँ समेटे है
कण कण का ठहरा मन, इक उम्र ए दौराँ समेटे है
फकत अंग-वस्त्र ही अपनी उम्र का बयां नहीं करते
रूह के पैरहन उम्र ए सिलवट के निशां लिए बैठे है
रूह के पैरहन उम्र ए सिलवट के निशां लिए बैठे है
तमाम रूहें ही नहीं इस सिलवट में लिपट उलझी है
खुदा खुद वख्ते-उम्र की सिलवट में लिपट उलझा है
खुदा खुद वख्ते-उम्र की सिलवट में लिपट उलझा है
Om Pranam
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