Sunday, 11 January 2015

ओम !



काहे रे नलिनी  तू कुम्हलानी, तेरे   ही   नाल सरोवर पानी 
जल में उत्पत्ति  जल में वास , जल में  नलिनी तोर निवास 




सर्वस्व  आरम्भ अंत  में  एक ही बात
ओम में  आरम्भ  ओम  में ही  विलय 
ओम से   स्नान   हो ओम का ही  पान 


क्षुद्रता   से व्यापकता  के साम्राज्य में 
मानव औकात  रेंगते  कीड़े से भी कम
किस का मान किस बात का अभिमान 

संज्ञानी ! कैसा ज्ञान और कैसा अज्ञान  
ध्यान से जरा देखो अपनी देह के भीतर 
रेंगते-दौड़ते,जीती-मरती कोशिका तुम 

श्वेत रक्त कण ज्यूँ पलते तेरी  देह में 
उसी सामान पलते तुम , धरती-देह में 
रेंगते  दीखते स्पष्ट  धरती के शरीर में 

असंख्य जीवों जंतु कणो को ऊर्जा देती 
धरती घूम रही धुरी पे निरंतर संयम से 
व्यर्थ है झूठा मान  रे  मूरख अभिमानी 

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