लौकिक भाषा की सीमाओं-
नीचे पलती है सांसारिकता
शब्द खंगालते है भावों को
ग्रंथपन्नो में ढलती बोलियाँ !
संज्ञा की अपनी मजबूरी है
फिर सर्वनाम तो जुड़ेंगे ही
गुण गिने जब भी जायेंगे
तो अवगुण भी उभरेंगे ही !
चाहें यदि परम से सर्वसरल
सर्वसुलभ रूप में आ सामने
स्व-निजरूप तुम हो जाओ
संज्ञाविहीन,सर्वनामविहीन !
वो सरलता, वो ही सुलभता
ग्राह्यता, पात्रता भी चाहिए
एकात्म मिलन की कसौटी
तादात्म्यता परिपूर्ण चाहिए !
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