Sunday, 30 November 2014

एकात्म - मिलन - कसौटी



लौकिक भाषा की  सीमाओं- 
नीचे पलती  है सांसारिकता  
शब्द खंगालते है  भावों  को  
ग्रंथपन्नो में ढलती बोलियाँ !

संज्ञा  की  अपनी  मजबूरी है 

फिर  सर्वनाम  तो  जुड़ेंगे ही 
गुण   गिने  जब  भी जायेंगे
तो   अवगुण  भी  उभरेंगे ही !

चाहें यदि परम से सर्वसरल
सर्वसुलभ रूप में आ सामने 
स्व-निजरूप तुम  हो जाओ  
संज्ञाविहीन,सर्वनामविहीन !


वो सरलता, वो ही  सुलभता 

ग्राह्यता, पात्रता भी  चाहिए 
एकात्म  मिलन  की कसौटी 
तादात्म्यता परिपूर्ण चाहिए !

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