आश्चर्य न करो , स्वप्नदृष्टा ! अपने ही
निंद्रा में रोज दिखते सांकेतिक स्वप्न पे ,
ईश्वर तत्व स्वयं में संकेत है
तो समक्ष बैठा अथवा
फ्रेम में जड़ा कभी न जन्मा न कभी मारा
सदगुरु भी संकेत है ,
गुरु के लिखे कहे शब्द
ग्रन्थ भी संकेत ,
सिर्फ ऊपर को उठी हुई ऊँगली ही नहीं
उसका रोम रोम संकेत,
अंदर बाहर करती श्वास- श्वास संकेत है ..
भोजन ग्रहण करती जिव्हा
पचय को सरल करते रसायन
उन सहज तरल पदार्थ उत्पत्ति
भोजन का स्वतः नालियों के
अंदर जा घुलमिल जाना
जहाँ ऊर्जा स्वयं
रूप पुनः परिवर्तित करती है
रक्त बन प्रवाहित ऊर्जा प्राण
आवश्यक को ग्रहण कर अन्य को
विसर्जित करती
क्या आप स्वयं कुछ करते है !
पुनः शोधन कीजिये ,
सिवाय गुत्थी और पेचीदगी
परोसने के सिवा
आप और भी कुछ करते है ?
जहाँ भी बुद्धि रुपी नाक घुसाई
परेशानिया , उलझन ,जटिलता
शब्दों से सहज सामना हुआ
ठहरो , विचारो !!
इन समस्त सही और
सुचारू प्रणाली के अंतर्गत भी
छिपे स्वयं परम के दिव्य संकेत ही है
स्वास्थ्य से लेकर अस्वास्थ्य
प्रसन्नता और विषाद
उन्नत चोटी से गहरे समंदर तक
ये हरी भरी फैली प्रकर्ति ,
फल रंगबिरंगे खुशबूदार फूल
भोजन और भजन के संकेत
हिलते डुलते या के स्थिर
चल और अचल जीव जगत
लगती खुली अधखुली
सोयी किन्तु जागी
स्वप्निल आँखों से
( लौकिक दृष्टि )
आपको संकेत ही मिलेंगे
रे, स्वप्न दृष्टा ,
जिसे आप भाषा कहते है
देसी या हो विदेशी !
आंतरिक तरंगों की अभिव्यक्ति
के प्रयास करते ,
आपके लिए आपके ही ,
संकेत ही है
जो भी भाव से जागा,
प्रेम, श्रद्धा, भक्ति या करुणा
भाव भी मात्र संकेत ही है ,
कृपया इन्हे अपनी
खूंटियां न समझे
वैसे खुंटिया भी तो
स्वयं में संकेत है
यदि उचित समय न चेते
तो परायी खूंटियों पे टंगे टंगे ही
मृत्यु रूप सांकेतिक द्वार में
यूँ ही प्रवेश कर जायेंगे
इतना तो करिये , कम से कम
इस स्विप्निल जागृत जीवन में ,
अपनी खुंटिया खुद बनायें- .
इन्ही शब्द संकेतो को !
महापुरुष व्यास ,
तुलसी कबीर , मीरा बुद्ध ,
सभी तो संकेतों का ही उपयोग करते रहे
आजीवन संकेत ही देते रहे
एक बार स्व दिव्य दृष्टि से देखें पुनः
सुने पुनः , पुनः छू के देखो उन शास्त्रो को ,
वहां स्याही नहीं इस बार संकेत ही मिलेंगे
स्वयं कृष्ण राम जैसे महापुरुष
संकेत कर कहते रहे
उनके जीवन चरित कथा स्वयं में संकेत है ,
राधा , रुक्मणी भूरि बायीं ,
प्रेम , कर्त्तव्य और मौन से प्रेरणा रूप
अपने अपने तरीके से संकेत देती रही .
आप है की खूंटियां ही बढ़ाते रहे
देखिये ! ज़रा एक बार मुड़ के ,
अपने ही ठीक पीछे !
कुछ सीख सीखने के लिए
वे सिद्ध वृक्ष और मंदिर या
मजार के वातायन को
जिनपे निरंतर परिवर्तशील
लौकिक मनौती के नाम पे
आस्था रुपी कपड़ों की चिन्दियाँ
बाँध के आप आते रहे
पंडित , पीर ,मौलवी को
दान आप चढ़ाते रहे
वे चिन्दियाँ आज भी
पेड़ों और खिड़कियों को छिपाती
हवा में उड़ रही है
छोटी छोटी बजती घंटियां
अनवरत आपसे कुछ कह रहीं है
किन्तु किसी का कहा हुआ -
आपको सुनाई कहाँ देता है ?
वो ही आप सुनते है और उतना ही
जो जितना सुनना चाहते है
क्या मनोवैज्ञानिक कीमिया आपको मालूम है
दिमाग की शातिर चालो से वाकिफ है क्या ?
वो वही दिखाता है सुनाता है प्रेरित करता है
जो आपके मन को अच्छा लगता है !
और आपको लगता है की
आप अपने लिए अच्छा ही अच्छा जुटाते है
प्रयास करते है , कर्म करते है ,
सुविधाएँ एकत्रित करते जीवन जीते है
फैशन करते रेस्ट्रारेन्ट में जाते
शराब कवाब , प्रपंच में उलझे
मदहोश है मदमस्त है आप ,
दिव्य छलिया जीवनसुरा से
वस्तुतः सब मस्तिष्क की चाल है
छलिए का छल है , मन का भ्रम है
संताप भी छली रूप में सामने
आ के बंसी बजाते है
आपको उतना ही दुखी कर पाते है
जितना आपको सुहाता है !
अजब उल्टा खेल है , लीला है !
जाने ! जरा ठीक से,
क्यूंकि ठीक पीपल के वृक्ष पे
चिन्दियाँ घंटियां बाँधने के बाद
सिद्धिपीठ पे अपनी ही भीड़ से
भीड़ को कुचलते
जीवन के लिए भागते ,
जीवन को रौंदते
बेपरवाह मानव समूह
को देख कर भी
शोर करता वो परम-मौन
अनवरत मानवीय मूर्खता से क्षुब्ध
परम के दिव्य संकेत भी उस पल
कुछ क्षण को मानो मौन स्तब्ध हो गये
प्रकर्ति कितनी बार गहरे सन्नाटे में डूबी
जब जब भोली मदहोश आस्था के पीछे छुपा
कोई तथाकथित बाबा जेल की सलाखों के पीछे गया
अनवरत प्रयासरत प्राकृतिक संकेत भी स्तब्ध रह गए
रे, स्वप्न दृष्टा ! क्या अब भी
आप नींद में नींद से जागे ?
परम अनवरत संकेत दे रहा है
प्रकृति सम्पूर्ण रूप से सहयोग कर रही
सीधा संपर्क पहले से ही जुड़ा हुआ
आप कितने भाग्यशाली है
मानवरूप में जन्मित जीवरूप
परमात्मा के समस्त उपहारों से संयुक्त
प्रेम और दुलार नित आपकी सुलभ
अरे तनिक रुकिए , विश्राम दीजिये
थोड़ा ध्यान तो दीजिये " स्वयं " पे
स्वयं अर्थात स्व + यम , अपना ही काल है स्वयं
संयोग अर्थात अचानक घटना का घट जाना नहीं
सं + योग स्वयं से किया गया योग
तत्जनित उत्पन्न परिस्थति ही संयोग
आपका ही कर्म फल प्रताप संयोग है
कहाँ और क्यों भटक रहे है आप ?
माया ही माया का समंदर विशाल
मछली जैसे क्यूँ तड़पते आप है ?
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